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देवगढ़ की जन संस्कृति और परमानन्द जी बरया
पिताश्री का स्वर्गवास हो गया। पितृवियोग, धनाभाव प्रेरणा, अध्यवसाय, कार्यतत्परता और सुयोग्य मार्गदर्शन
और साधनों की न्यूनता ने उन्हें केवल मिडिल-परीक्षा आदि के सुपरिणाम है। (सन् १९०७) पास करके कर्मक्षेत्र में उतरने को बाध्य म० सं० ११ और १२ देवगढ़ के विशाल मन्दिरों में करदिया। इसी समय सौभाग्यवश, बरया जी को पूज्य से हैं । वे अनेकशः जीर्ण शीर्ण हो गये थे। सरकारी इंजीपं० गणेशप्रसाद जी वर्णी का सान्निध्य प्राप्त हो गया, नियर, प्रोवरसियर तथा वास्तुविद्या के ज्ञाता भी इनके जो उस समय ललितपुर में स्व. देवीप्रसाद जी पटवारी जीर्णोद्धार मे हिचकिचाते थे। वे लोग इनके जीर्णोद्धार के मकान (दि. जैन बडे मन्दिर के निकट) मे रहकर कार्य को हाथ में लेने का साहस नही कर रहे थे। श्री काशी के एक प्रसिद्ध विद्वान् से न्यायशास्त्र एवं धर्मग्रन्थों
बरया ने स्वयं के उत्तरदायित्व पर बहुत साहस, सावआदि का अध्ययन कर रह थ । बरया जान स्वय पूज्य घानी, अभिरुचि और निष्ठा के साथ इनका जीर्णोद्धार वर्णीजी से धर्म-शिक्षा प्राप्त की। उनके सत्संग से अजित
विधिवत् कराया और पूर्ववत् आकर्षक तथा भव्य रूप संस्कार और शिक्षाओं का सुप्रभाव अब भी बरया जी के पास किया। व्यक्तित्व में देखा जा सकता है।
__ सोते, उठते, बैठते बरया जी को एक ही चिन्ता रही ___ अपने जीवन के पूर्वान्ह में बरया जी ने श्री टडया
है कि-देवगढ़ का उद्धार कैसे हो, और इसीलिए उसे जी एवं श्री चुन्नीलाल बच्चूलाल जी सर्राफ के यहाँ
समृद्ध एव आकर्षक बनाने की दिशा मे उन्होने जो भी मुनीमी की। सर्राफ जी श्री बरया की कार्यकुशलता और
प्रयत्न किये है, उनमें उन्हे अभूतपूर्व सफलताएँ मिली है। ईमानदारी से बहुत प्रभावित हुए। प्रतएव उन्होंने अपना
उनका जीवन देवगढ़ के लिए सदैव संघर्ष करता पाया समस्त व्यावसायिक कार्यभार इन्हें सौप दिया और स्वयं
है । ललितपुर में क्षेत्र के लिए तीन मकानो की उपलब्धि धर्म-साधना में समय बिताने लगे । सन् १९२२ के करीब
उनकी सुविचारित योजनाओं का ही परिणाम है । क्षेत्र सर्राफ जी ने ललितपुर में श्री जिनबिम्ब पंचकल्याणक
की अोर अनेक मुकदमो आदि मे उन्होने जिस प्रकार का प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव का आयोजन किया। इस
परिश्रम किया है, उसे भुलाया नहीं जा सकता । ललितपुर महान् कार्य मे बरया जी की कुशलता और सफलता देख
से देवगढ तक तथा देवगढ की जैन धर्मशाला से पर्वतस्थ कर वे बहुत प्रभावित हुए। इस गजरथ के पहले (सन्
जैन मन्दिरों तक राजमार्ग के निर्माण मे बरया जी के १९२०) से ही बरया जी देवगढ़ के सम्पर्क में आ गये थे। तब से उन्होंने अनेक धनिकों, कलाप्रेमियों, पुरा
प्रयत्न भी उल्लेखनीय महत्त्व रखते हैं।। तत्वज्ञों, धर्मात्मानों, विद्वानों तथा संस्थानो का ध्यान उनसे मिलकर प्रत्येक यह अनुभव करता है कि वे देवगढ़ के गौरवपूर्ण अतीत, समृद्ध वैभव और उपेक्षित- धुन के पक्के है । जो काम वे हाथ मे ले, उसे पूर्ण करके वर्तमान की ओर आकृष्ट किया। सन् १९२८ से अब भी ही चैन लेते है। उनके सम्पर्क में आने पर ऐसा प्रतीत उन्होने देवगढ़ की जो बहुविध सेवाएँ प्रारम्भ की है और होता है कि-वात्सल्य और प्रभावना अंग उनके माध्यम कर रहे है, वे इतिहास में अविस्मरणीय रहेगी और तब से मतिमान हो उठे है। उनकी प्रातिथ्य-पद्धति बहुत तक नही भुलायी जा सकती जब तक देवगढ़ का अस्तित्व निराली और प्रभावशालिनी है।
क्षेत्र पर मेलों का आयोजन तथा १६३६ ई० में श्री शासन से क्षेत्र की वापसी, वन विभाग से भूमि का गुरहा जी (खुरई) द्वारा आयोजित श्री जिनबिम्ब पंचअधिग्रहण, धर्मशाला, कुआं, व चैत्यालय का निर्माण, कल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव की निर्विघ्न इकतीस मन्दिरों का जीर्णोद्धार, मूर्तियों की सुरक्षा प्रबन्ध, समाप्ति, बरया जी के अदम्य उत्साह, सूझ बूझ और जैन चहारदीवारी का निर्माण, मन्दिरों के द्वारों में लोहे अकथनीय परिश्रम का ही परिणाम है। उनकी हर श्वांस के किवाड़ लगवाना आदि प्रापके अथक परिश्रम, निरन्तर में देवगढ़ के लिए बेचनी है। यद्यपि उन्हे धार्मिक, सामा