________________
१७६
अनेकान्त
जिक और राजनैतिक गतिविधियों में पर्याप्त अभिरुचि हे, रेरियम" के रूप में अर्पित कर सराहनीय कार्य अवश्य किन्तु उनने इन सबसे ऊपर है-देवगढ़ का लगाव । किया है किन्तु मेरे विचार मे उनकी सेवाओं का समुचित अध्ययन और मनन भी उनके जीवन के आवश्यक अग मूल्याकन होना चाहिए। है । वे धर्म, कला, संस्कृति और इतिहास से सम्बन्धित संक्षेप में यदि कहना चाहें तो यही कहेगे कि देवगढ ग्रन्थो और पत्र-पत्रिकामो का पालोडन विलोडन करते के लिए उन्होने वह सब किया है जो कोई 'डायरेक्टर रहते है।
जनरल' ही कर सकता है। देवगढ के प्रति उनमे जो उनकी तीर्थभक्ति और तीर्थसेवा से प्रभावित होकर ममता है, वह अन्य क्षेत्रो में दुर्लभ है। वैसी ही लगन वे देवगढ प्रबन्धक समिति तथा जनसमाज ने समय-समय पर भावी पीढी में देखने को आतुर है। यही उनके जीवन की 'तीर्थसेवक" "देवगढ का यक्ष" आदि उपाधियो से सम्मा- साध प्रतीत होती है। नित कर अभिनन्दन-पत्र प्रादि समर्पित किये है। श्री ग्राज जब वे अपने जीवन के अस्सीवे बसन्त में प्रवेश बरया जी सन् १९५० तक पूरी तरह से देवगड की 'आन- कर रहे है, हम उनकी सेवायो का अभिनन्दन करते है रेरी' सेवा में व्यस्त रहे । किन्तु उनकी सेवारो को दृष्टि तथा यह कामना करते है कि वे शतायु हो-चिरायु हो में रखके तथा आर्थिक क्षीणता पर और वृद्धावस्था पर एवं इसी तरह से देवगढ और श्रमण सस्कृति की उपासना विचार करके प्रबन्धक समिति ने वन्हे १००) माह "पान- में तन्मय रहे ।
अमृता, समृद्ध जैन साहित्य
रिषभदास रांका
प्राचीन जैन साहित्य भारत की अनेक भापायो मे समृद्धि मे दक्षिणवालों से अधिक है। यद्यपि दक्षिण मे लिखा गया है। और इतना विशाल है कि स्वयं जैनियों जैन संस्कृति ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया है यह कहने को भी पता नही है कि उनके पास कितना समृद्ध और विपुल मे अतिशयोक्ति नहीं है कि दक्षिण की सस्कृति पर श्रमण यह साहित्य है । जैनियो का अधिकाश साहित्य प्राकृत और सस्कृति का अधिक प्रभाव है। दक्षिण का प्राचीन जैन अर्धमागधी भाषामे लिखा गया है। बादमे सस्कृत, अपभ्रश साहित्य अत्यन्त ही समृद्ध तथा विशाल है। तथा उत्तर की हिन्दी, मराठी, राजस्थानी, गुजराती आदि इस बात का परिचय प्राचार्य तुलसी जी को दक्षिण भाषाओ मे तथा दक्षिण की कन्नड तथा तमिल भाषा मे। यात्रा में हुअा। जब उन्होने कर्नाटक में प्रवेश किया तो उत्तर की भाषामो तथा प्राकृत या सस्कृत में लिखे साहित्य देहातो मे हजारो जैनी मिले या जैनत्व से प्रभावित लिगाका संपादन, प्रकाशन, अध्ययन खोज का काम कुछ अगों यत मल के जैनी पर जैनियो मे जब कर्मकाण्ड तथा जाति मे हुआ है। उसकी विशालता को देखते हुए हमे यह भेद की विकृति आई तो सुधारक व सबने जैनियों को कहना पड रहा है कि यह कार्य भी कुछ प्रयो मे ही हुअा व बनाया और वे लिगायत बनाये गये। भले ही वे है। क्योकि अभी तक जैन प्राचीन भण्डारो मे सुर- लिगायत बने पर हिसा प्रधान जैन धर्म की अहिसा क्षित काफी साहित्य अप्रकाशित है। लेकिन फिर भी उन्होने अपनायी और सस्कारों को अपने में से निकाल उत्तर मे जैनियो का अपने साहित्य के प्रति ध्यान आक- नहीं पाये । और तो क्या भटकल जैसे स्थान पर मुस्लिमों पित हुआ है। उन्होने उस पर काफी काम किया है। पर जैनत्व का प्रभाव दिखाई पडता है। मटकल यह समुद्र किन्तु दक्षिण के विशाल साहित्य पर तो बहुत ही कम के किनारे महत्त्वपूर्ण बन्दर था। वहाँ से विदेशों को व्याकाम हुआ है। कारण स्पष्ट है। उत्तर के जैनी संख्या में पार होता था। और वहाँ के जैन व्यापारी विदेशों में