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अछूता, जैन समृद्ध साहित्य
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व्यापार के कारण ममद्ध थे। एक बार अरबो ने उनपर निश्चय हा । और उसके लिए दो लाख रुपये भी उनके घावा बोल दिया। पुरुष स्त्रियोको छोड कर भाग गये जो अनुयायियो ने इस सस्थान को चलाने के लिए एकत्र कर स्त्रियाँ बची उनमें से कुछने धर्म और सतीत्व के लिए प्राण काम प्रारभ कर दिया। त्याग दिये, पर जो वैसा नही कर सकी वे मुसलमानों की हम छोटी-छोटी बातों को लेकर तीर्थो के लिए झगपत्नी बनकर उनके साथ रहने लगीं। पर जैनियो के डने वाले अपने दिगबर तथा श्वेतांबर भाइयों से प्रार्थना पीढियों से चले आये संस्कार न त्याग सकी। उनमे से करेंगे कि उनके धन का आपस मे झगडने से अच्छा उपबहत सी अब भी रात्रि को भोजन नही करती है।
योग किया जाय ऐसे कई क्षेत्र है । दक्षिण में प्रायः दिगबर आचार्य तुलसी के स्वागत में दक्षिण के राजनीतिक,
भाई बसते है उनमें से भले ही कुछ सघन हो पर अधिसमाजसेवी और विद्वानों ने कहा कि जैनियो का अपना
कांश बहुत ही दरिद्र और पिछडे हुए है। उनसे साधुग्रो, घर तो दक्षिण है। आपको तो यहाँ आकर काम करना
ब्रह्मचारियो तथा कार्यकर्तामो से सपर्क न रहने से बहुत चाहिए। जैनियों के विशाल तथा समृद्ध साहित्य तथा
से अन्य धर्मों में भी प्रवेश कर रहे है या जो हैं वे भी जैन संस्कारो से प्रभावित जनता में काम करना चाहिए।
जैन तत्वों से अपरिचित बनते जा रहे है। सिर्फ नवकार श्री निर्जालगप्पा, दासप्पा, जत्ती, अन्नदुराई आदि चोटी
मंत्र और रात्रि में भोजन न करना यही जैनत्व की के नेतानो ने कहा कि यदि प्राचीन कन्नड और तमिल
निशानी बची है। एक तीर्थ या मन्दिर के झगडो में भाषा मे से जैन साहित्य निकाल दिया जाय तो आज की
लाखो खर्च करने वाले भाई दक्षिण में जाकर देखे कि तरह समृद्ध न रहकर दरिद्र बन जावेगा । यह बात राज
सैकड़ों मन्दिर व्यवस्था के अभाव में खण्डहर बन रहे है । नीतिज्ञ, ने कही हो सो नही पर विद्वानों और शिक्षा
या अन्य धर्म वालों के अधीन हो गये है। वे दक्षिण में शास्त्रियों ने दक्षिण प्रवेश के समय से लगाकर बार बार
रहने वाले इन सात लाख दक्षिण के जैन भाइयो मे काम कही। धारवाड, कन्नड विश्वविद्यालय के सचालको ने बताया कि वहाँ जैन चेयर है और विश्वविद्यालय ने
करे यह आवश्यक है और उपयोगी भी। कर्नाटक में प्राचीन कन्नड जैन साहित्य के प्रकाशन के लिए अर्थ की पांच लाख और तमिल में दक्षिण के मूल निवासी जैन व्यवस्था भी कर रही है । आवश्यकता है कार्य करने की। है। तमिल में जैनियो को नयनार कहते है। बहुत कन्नड साहित्य अल्प ही क्यो न हो पर काम तो हुआ है, पर ही गरीब और पिछड़े हुए है। उनसे सपर्क कर उनमे तमिल में तो नहीं के बराबर ही है। प्राचार्य तुलसीजी काम करना अत्यन्त आवश्यक व उपयोगी है। वहाँ जो में जैन साहित्य के इस अछुते किन्तु समृद्ध साहित्य पर साहित्य है उसका विविध भाषामो में अनुवाद होना काम करने की लालसा जगी। भले ही दक्षिण का साहित्य चाहिए। हम यहा सिर्फ तमिल भाषा में जो महत्वपूर्ण दिगम्बर साहित्य ही क्यो न हो पर उसका सशोधन, साहित्य है उसकी सूची दे रहे है। इससे कुछ पता चल सपादन, अध्ययन और प्रकाशन का काम होना चाहिए, सकता है कि इस दक्षिण के महत्वपूर्ण साहित्य पर काम यह चिंतन चलता रहा। हम दक्षिण यात्रा के समय करना कितना आवश्यक और उपयोगी है क्या हम अपने हबली, नंदीदुर्ग और मद्रास में उनसे मिले, तब तब इस जैन भाइयों को प्रापसी झगड़ो मे होने वाले धन व्यय को विषय पर चर्चा हुई। पर जब हम अक्टूबर में अणुव्रत के इस महत्त्वपूर्ण व उपयोगी कार्य में खर्च करने के लिए अधिवेशन में जाने वाले थे तब डा० उपाध्ये ने हमे कहा आकर्षित कर सकेंगे । भले ही पूर्णरूप से वे उस धन व्यय कि आप मद्रास में प्राचार्य श्री से मिलने वाले है तब को इस काम मे न भी लगा सकें तो भी इस महत्वपूर्ण उनसे कहना कि तमिल भाषा के प्राचीन जैन साहित्य के कार्य के विषय में अवश्य चिंतन करेंगे। और आचार्य लिए कुछ करें। मैंने चर्चा की। दक्षिण साहित्य पर तुलसी जी ने सप्रदाय का विचार न कर दक्षिण के जैन काम करने के लिए संकल्प में परिवर्तित होकर एक दक्षिण साहित्य के लिए जो शोध संस्थान शुरू किया है उसमें भाषा के जैन साहित्य का शोध संस्थान स्थापन करने का सक्रिय सहयोग देंगे।