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अनेकान्त
होकर सुख में मग्न न फूलू, दुख में कभी न घबराऊं। उनसे कहा था कि 'भापतो भीष्मपितामह है, क्यों घबराते पर्वत नदी श्मशान भयानक, अटवी से नहीं भय खाऊँ॥ है, आपको तो इच्छा मृत्यु होगी-जब तक नहीं चाहेंगे रहे पडोल प्रकम्प निरन्तर. यह मन बुढ़तर बन जाये। मृत्यु आपके पास नही फटकेगी।' इससे उन्हें कुछ बल इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, सहनशीलता दिखलावे॥ मिला और बोले, 'ठीक है। उत्तरायण-दक्षिणायण का ही
उसकी इस 'मेरी भावना' ने लाखों व्यक्तियों को अन्तर है । अब अधिक दिन तो चलना नही है, जो चारमनोबल प्रदान किया। क्या वह स्वयं उसके जीवन पर पांच कार्य हाथ मे ले रक्खे है उन्हें पूरा कर लू, फिर भले कोई प्रभाव न रखती? इस महाभाग के अवसान से ही मृत्यु आ जाय ।' और ऐसा ही हुमा। प्रसून दुःख मे यह हर्ष मिश्रित है कि अपने अध्यवसाय दिसम्बर १९६६ मे एटा में उनकी ८९वी जन्मऔर लगन से उसने अपना जीवन तो सार्थक सिद्ध किया जयन्ति मनी थी। उक्त अवसर पर उत्सव की अध्यक्षता ही, मृत्यु का प्रालिङ्गन करने के लिए उसने स्वयं को करने के लिए मुझे बुलाया गया था। उसके दो-डेढ़ वर्ष जिस प्रकार तैयार रक्खा उससे उसने अपना अन्त भी पूर्व से समन्तभद्र स्मारक योजना और वीर सेवामन्दिर सार्थक सिद्ध कर दिया।
ट्रस्ट की पुनर्व्यवस्था के सम्बन्ध में पत्रों द्वारा विचार स्व० मुख्तार साहब की जीवनेच्छा बड़ी प्रबल थी। विमर्श चल रहा था। इन दोनों की ही उन्हे विशेष मरना तो शायद कोई भी नही चाहता, किन्तु वह तो चिन्ता बनी हुई थी। उस अवसर पर इस सम्बन्ध में मृत्यु का नाम भी नहीं लेते थे। अब से दस-पाँच वर्ष साक्षात् बातचीत भी हुई। अपने हाथ में लिए हुए पहिले तक भी वह अपनी मृत्यु के बारे में कमी सोचना साहित्यिक कार्यों के विषय में भी बातचीत करते रहे। भी नहीं चाहते थे। प्रसंग चलता तो उसे टालने का उस समय स्वस्थ और प्रसन्न थे। किन्तु मार्च ६७ के प्रयत्न करते । मृत्यु का नाम लेना या लिया जाना वह प्रारम्भ से ही अस्वस्थ रहने लगे। बन्धुवर डा० श्रीचन्द्र अपशकुन या अपशब्द जैसा समझते थे । अपने स्वस्थ और जी संगल के १८ मार्च के पत्र से ज्ञात हुआ कि 'ता. ४ नीरोग रहने की चिन्ता अथवा सावधानी वह एक अत्यन्त मार्च से मुख्तार श्री अस्वस्थ चल रहे है। उन्हे ज्वर गुर्दो स्वार्थी व्यक्ति की भाँति रखने थे। अपनी भावी साहि- में सूजन (नेफ्राइटिस), रक्तचाप अधिक और चेहरे पर त्यिक योजनामों को सदैव ठोस और विस्तृत बनाये रखने वरम तथा कमजोरी अधिक है। बीच मे हालत चिन्ता
और यही कहते रहते कि अभी अमुक-अमुक कार्य पूरे जनक हो गई थी। परन्तु अब तीन-चार दिन से तबियत करने है-इन कार्यक्रमों को पूरा करने मे जीवनावधि सूधार पर है। आशा है शनैः शनैः स्वास्थ्य लाभ हो भी आगे ही आगे बढती जाती थी। एक सौ वर्ष से कम जायगा । चिकित्सा पूर्णरूप से ठीक हो रही है। चिन्ता जीने का तो उनका इरादा ही नही था। किन्तु इघर दो- की कोई बात अभी नहीं मालूम पड़ती है। उन्ही के २६ तीन वर्षों से उन्हे ऐसा लगने लगा था कि जीवन अब मार्च के पत्र से ज्ञात हुमा कि तबियत फिर कुछ गड़बड़ अधिक नही चलना है, तदनुसार अपने साहित्यिक कार्य- हो गई थी, तब तक ठीक नही हुई। और ४ मई के पत्र क्रमों को भी वह सीमित करने लगे थे। अपने अन्तिम में डा० सगल ने लिखा था कि "ताऊ जी की तबियत वर्षों में समन्तभद्र स्मारक और समन्तभद्र पत्रिका प्रादि अभी ठीक नहीं है । दुबारा दुबारा रिलेप्स हो जाता है। की जो योजनाएँ उन्होने बनाई थी और जिन्हे कार्यान्वित ब्लड प्रेशर और गुरदो की बीमारी ऐसी ही है, अच्छी तो हुमा देखने की उनकी उत्कट लालसा थी, उनके विषय में होती ही नही, फिर भी उपचार से और वैयावृत्त्य से ठीक भी यह कहने लगे थे कि अब मेरा कुछ भरोसा नही है, रहती है। परन्तु उनका यह हाल है जरा तबियत ठाक मै शायद इन्हें कार्यान्वित हुमा देखने के लिए नही रह होती है तो अपना धन्दा लिखने पढने का लेकर बैठ जात पाऊंगा। जब कभी अस्वस्थ हो जाते तो इस प्रकार की है और रोकने से मानते नहीं। दुनिया भर की फिकरें बाते विशेषरूप से करने लगते । ऐसे ही एक प्रसंग मे मैने मोल ले रक्खी है। अब कौन उनसे कहे, मोर कह कर