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उस मृत्युञ्जय का महाप्रयाण
डा० ज्योतिप्रसाद जैन एम. ए. पी-एच. डी. जन्म और मृत्यु जीवन के दो छोर है। ससार तो मे तो यह समर्पण एक निष्ठ रहा। उनकी सामाजिक अनादि-अनन्त है, किन्तु ससार के प्रत्येक प्राणी का जीवन और सास्कृतिक सेवायों का तथा उनकी साहित्यक उपसादि-सान्त ही होता है। जिसका जन्म हुआ है उसकी लब्धियो का मूल्याङ्कन कुछ हुआ है, शेष वर्तमान तथा मृत्यु अवश्यम्भावी है-वह टल नही सकती। यह देखते पाने वाली पीढियाँ करेगी। उनके जीवन में जसो और जानते हुए भी कौन ऐसा है जो मरना चाहेगा? प्रतिष्ठा, सन्मान पर प्रभावना उन्हे प्राप्त होनी चाहिए मृत्यु तो सभी को अनिष्ट और अप्रिय होती है। ऐसे थी वैसी नही हुई। कुछ लोग कहते रहे है कि इसका व्यक्ति भी विरले ही होते है जो मृत्यु से भयभीत नहीं कारण मुख्तार साहब का व्यक्तित्व, स्वभाव और व्यवहोते, अथवा जो उस भय पर विजय पा लेते हैं। यदि हार रहे है। हो सकता है कि उसका प्रशतः यह कारण कोई पर्याप्त दीर्घजीवी होता है तो बहुधा कह दिया जाता भी रहा हो। किन्तु क्या इसका साथ ही यह कारण भी है कि उसने मृत्यु को जीत लिया है। किन्तु केवल दीर्घ- नही हो सकता कि जिस समाज मे वह जन्मे, जिये और जीवि होना ही मृत्युजयी होने का प्रमाण नहीं होता। जिसकी सेवा में उन्होने अपना सम्पूर्ण तन, मन और धन मृत्युजया कहलान का अधिकारा ता वह व्यक्ति ह जा समर्पित कर दिया वह समाज कृतघ्न था, अथवा उसमे मरना न चाहते हुए भी मरने से डरता नहीं है। जो सचिन गुणग्राहकता या कद्रदानी का प्रभाव था ! इस जीवन के प्रत्येक क्षण का यथाशक्य सदुपयोग करता है, प्रश्न का समाधान भी समय करेगा। किन्तु मृत्यु के लिए भी सदैव तैयार रहता है। मृत्यु को
ऐसे निष्काम कर्मयोगी एव दीर्घकालीन एकनिष्ठ वह कोई संकट या विपत्ति नहीं समझता, वरन् उसे
साधक से, जिसने श्रमण तीर्थङ्करों के उस धर्म को अपजीवन का अनिवार्य विराम स्वीकार करके जब भी वह
नाया और अपना इष्ट अध्ययनीय एव मननीय विषय आये, समभाव से उसके लिए प्रस्तुत रहता है। ऐसी
बनाया जिसमे मरण को "मृत्युमहोत्सव' सज्ञा दी गई है, मनःस्थिति स्वयमेव, अथवा क्षणमात्र मे नही बनती।
यह तो अपेक्षित था ही कि वह मृत्यु पर विजय पा लेता। उसके लिए पर्याप्तकालीन मनोनुशासन एवं मानसिक
स्वामि समन्तभद्र का अनन्य भक्त और समन्तभद्रभारती तयारी करते रहना अपेक्षित होता है।
का अप्रतिम तलस्पर्शी अध्येता एवं प्रख्याता भी यदि प्राक्तन-विद्या-विचक्षण श्रद्धेय प्राचार्य जुगलकिशोर
मृत्युभय पर विजय न पा सका होता तो उसके उस दीर्घजी मुख्तार 'युगवीर' ने साधिक इक्यानवे वर्ष का दीर्घ
जीवन, चिरकालीन साधना, धर्मज्ञता और जितना कुछ जीवन पाया। मन और तन का स्वास्थ्य भी सामान्यतया
भी धर्माचरण था उस सबकी क्या सार्थकता रहती। उत्तम प्राप्त किया। अत्यन्त सरल एव सादा खान-पान
मत्यु से लगभग साठ वर्ष पूर्व रचित अपनी सर्वाधिक और रहन-सहन, नियमित-संयमित जीवनचर्या और
लोकप्रिय 'मेरी भावना' मे उसने उद्घोष किया थामुख्यतया बौद्धिक वृत्ति मे सलग्नता इस दीर्घजीवन और मानसिक स्वास्थ्य की विशेषताएँ थी, और सभवतया काई
कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी प्रावे या जावे। उनके मूलाधार भी थे। इस दीर्घजीवन का बहभाग, लाखा
. लाखों वर्षों तक जीऊं, या मृत्यु प्राज ही पाजावे ।। लगभग सत्तर वर्ष, उन्होने साहित्य, संस्कृति और समाज अथवा कोई कंसा हो भय या लालच देने पावे। की सेवा में अर्पित किया। जीवन के अन्तिम पचास वर्षों तो भी न्याय मार्ग से मेरा कभी न पद डिगने पावे॥