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अनेकान्त
पहा
है। देवागम का अनुवाद भी उन्होंने सरल ढंग से प्रस्तुत से दिलाया। मुख्तार सा० के व्यक्तित्व को उभारने का किया है, जो पठनीय है।
भी प्रयत्न किया। वीर शासन-जयन्ती के अवसर पर ___ इसी तरह समीचीन धर्मशास्त्र (रत्नकरण्ड श्रावकाचार)
सरसावा में अध्यक्ष पद से जो भाषण दिया था उसमे का अनुवाद, भाष्य और प्रस्तावना बड़ी महत्वपूर्ण है, वह उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि 'मैं मुख्तार मूल ग्रंथ पर अच्छा प्रकाश डालती है, और टीकाकार सा० को वर्तमान के मुनियो से भी कही अच्छा मानता हूँ प्रभाचन्द्र के सम्बन्ध मे भी ऐतिहासिक दृष्टि से यथेष्ट जो सामाजिक झगड़ों से दूर रह कर ठोस साहित्य के प्रकाश डालती है।
निर्माण द्वारा जिन शासन और समाज की सेवा कर रहे आपका अन्तिम भाष्य अमितगति प्रथम का योगसार
हैं।' बा० छोटेलाल जी की उदारता, उत्साह और परिश्रम प्राभूत है। जिसका उन्होंने बीसों बार अध्ययन किया है।
से तथा पूज्य प० गणेश प्रसाद जी वर्णी को प्रेरणा से वीर और बहुत कुछ चिन्तन के बाद उसका मूलानुगामी अनुवाद
सेवामन्दिर का भवन दिल्ली में बन गया। मुख्तार सा. और भाष्य प्रस्तुत किया है । यह उनकी अन्तिम कृति है। का बाबू छोटेलाल जी के साथ पिता-पुत्र जैसा सुदृढ प्रेम इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ से हुआ है। प्राशा है सम्बन्ध बहुत वर्षों तक रहा । पर कुछ कारणों से परस्पर समाज उससे विशेष लामै उठाने का प्रयत्न करेगी। में मतभेद उत्पन्न हो गया था बाद में उसमें पत्र व्यवमुख्तार साहब का जीवन सादा रहा है। वे सदा ।
हारादि द्वारा सुधार हो गया था और उनका परस्पर पत्रसिपाही की भाँति कार्य करने के लिये तत्पर रहते थे।
व्यवहार भी चालू हो गया था, किन्तु दुर्भाग्य है कि सन् परावलम्बी होना उन्हें तनिक भी पसन्द नही था। वे
सन् १९६२ के बाद उनका दोनो का परस्पर मिलन अपना सब कार्य स्वयं करके प्रसन्न रहते थे। उनके इस
नहीं हो सका। सेवा कार्य को देखते हुए यह स्वाभाविक लगता है कि मुख्तार सा० का अन्तिम जीवन भी सानन्द व्यतीत ऐसे निस्वार्थ सेवाभावी विद्वान का समाज ने कोई सार्व- हुमा, वे वीरसेवा मन्दिर दिल्ली से अपने भतीजे डा० जनिक सम्मान नहीं किया, इसका हमें खेद है। पर कुछ श्रीचन्द्र जी सगल के पास एटा चले गए थे । संगल जी ने व्यक्ति की अपनी कमजोरियाँ भी होती है जो उसे पागे बढ़ने अपने ताऊ जी की सेवा प्रसन्नता से की । डा० साहब का नहीं देतीं। मुख्तार सा० का जीवन एकागी था, वे जितना सारा परिवार उनकी सेवा मे संलग्न रहता था । वे उनकी साहित्यिक विषयों पर विचार करते थे, उतना उन्होंने सेवा से प्रसन्न भी थे । डा० सा० ने लिखा है कि उनका समाज के बारे में कभी चिन्तन ही नहीं किया, समाज के अन्त समय बड़ी शान्ति के साथ व्यतीत हुआ । मैं रातभर प्रति उनका दृष्टिकोण प्रायः अनुदार-सा ही रहा प्रतीत उनके पास बैठा रहा, णमोकार मन्त्र और समन्तभद्रस्तोत्र होता है । इस कारण उनके कितने ही कार्य अधूरे पड़े रहे, का पाठ करते हुए उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया। जिन्हें वे स्वय सम्पन्न करना चाहते थे। वे वीरसेवा. उनका देहावसान २२ दिसम्बर को ६१ वर्ष २२ दिन की मन्दिर जैसी उच्चकोटि की संस्था के सस्थापक थे, उन्हे आयु में प्रातःकाल हुमा । उनके रिक्त स्थान की पूर्ति होना अच्छे कार्यकर्ता विद्वानों का सहयोग मी मिला था। उनकी असभव है । मैं उन्हे अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता प्रौढ लेखनी से प्रभावित हो बाबु छोटेलाल जी कलकत्ता हुआ उनकी आत्मा को परलोक मे सुख-शान्ति की कामना ने उन्हें आर्थिक सहयोग स्वय दिया और अपने दूसरे मित्रों करता हूँ।