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________________ मुख्तार साहब का व्यक्तित्व और कृतित्व २२१ हा नहीं लिखती थी। लिखते समय उनकी एकाग्रता का सहेतुक निर्देश किया गया है । और यह बतलाया है कि और संलग्नता अनुकरणीय है। मन को जीतने पर मनुष्य सहज ही जितेन्द्रिय हो जाता तत्त्वानुशासन का भाष्य लिखते समय प्राचार्य रामसेन है । जिसने अपने मन को नहीं जीता वह इन्द्रियों को क्या के मूल्य पद्यों का मूलानुगामी अनुवाद किया और बाद में कारबाट ने जीतेगा ? मन के सकल्प-विकल्प रूप व्यापार को रोकना भाष्य लिखा । भाष्य लिखते समय मूल ग्रन्थकार की दष्टि अथवा मन की चचलता को दूर कर उसे स्थिर करना. को अक्षुण्ण रखते हए पद्यो मे आये हए विशेषणों का मन को जीतना कहलाता है । मन का व्यापार रुकने अथवा स्पष्टीकरण किया । पाठको की जानकारी के लिये उसके उसकी चचलता मिटने पर इन्द्रियो का व्यापार स्वतः रुक दो पद्यो का अनुवाद और व्याख्या नीचे दी जाती है जाता है-वे अपने विषयो मे प्रवृत्त नही होती उसी प्रकार संगत्यागः कषायानां निग्रहो वत धारणम् जिस प्रकार कि वृक्ष का मूल छिन्न-भिन्न हो जाने पर मनोऽक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यान जन्मनि ।। उसमे पत्र-पुप्पादिक की उत्पत्ति नहीं हो पाती। तत्त्वानुशासन की प्रस्तावना बहुत विचार-विमर्श के परिग्रहो का त्याग, कृपायों का निग्रह-नियत्रण, व्रतो बाद लिखी गई है। उसके लिखने मे मुख्तार सा० ने का धारण और मन तथा इन्द्रियो का जीतना यह सब अच्छा श्रम किया है। इस सम्बन्ध में मैने उन्हे पर्याप्त ध्यान की उत्पत्ति-निष्पत्ति में सहायभूत- सामग्री है। सामग्री दी थी। उन्होंने मेरा उल्लेख भी किया है। रामव्याख्या-यहाँ सग त्याग में बाह्य परिग्रहों का त्याग सेन के समय का निर्णय उन्होने कितने ही सुन्दर और अभिप्रेत है; क्योंकि अन्तरग परिग्रह में क्रोधादि कषाये मरल ढग से किया यह देखते ही बनता है। तथा हास्यादि नो कषाय पाती है जिन सबका कषायो के पाप के ग्रन्थों की प्रस्तावनाए वडी मार्मिक और निग्रह मे समावेश है । कुसगति का त्याग भी सगत्याग में शोधपूर्ण है। अध्यात्म-कमलमार्तण्ड की प्रस्तावना में या जाता है-वह भी सध्यान मे बाधक होती है । व्रतो १७वी शताब्दी के विद्वान तथा प्रथित ग्रन्थकार पांडे में अहिंसादि महाव्रतों तथा अणुव्रतों आदि का ग्रहण है । राजमल्न का परिचय और उनकी कृतियो के सम्बन्ध में अनशन ऊनोदर आदि के रूप में अनेक प्रतिज्ञाए भी व्रतो अच्छा प्रकाश डाला गया है। में शामिल है। इन्द्रियों के जय मे स्पर्शन-रसन प्राण-चक्षुश्रोत्र ऐसी पाचो इन्द्रियों की विजय विविक्षित है। ध्यान पुरातन जन वाक्य-सूची की प्रस्तावना और उसका की और भी सामग्री है, परन्तु यहाँ सर्वतो मुख्य सामग्री सम्पादन अपने महयोगी विद्वानो के साथ किया। ग्रन्थ का उल्लेख है। शेष सामग्री का 'च' शब्द में समुच्चय अन्वेषण करने वाले विद्वानो के लिये उपयोगी है मुख्तार किया गया है। उसे अन्य ग्रन्थों के सहारे से जुटाना सा० ने उसकी प्रस्तावना में प्रत्येक ग्रन्थ और ग्रन्थकार के सम्बन्ध मे अच्छा विचार किया है। खासकर सन्मति सूत्र चाहिये । इस ग्रन्थ में भी परिकर्म आदि के रूप में जो और सिद्धसेन के सम्बन्ध मे जो विचार अथवा निष्कर्ष कुछ अन्यत्र कहा गया है उसे भी ध्यान की सामग्री दिया गया है वह मौलिक है। गोम्मटसार की टि-पूर्ति समझना चाहिये। पर भी प्रकाश डाला है। और भी अनेक विद्वानो के इन्द्रियाणां प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मनः प्रभु। सम्बध में अच्छा प्रकाश डाला गया है । जो शोधक विद्वानो मन एव जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन जितेन्द्रियः ।। के लिये उपयोगी है। इन्द्रियो की प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में मन प्रभु 'समन्तभद्र भारती' के ग्रन्थों का अनुवाद और व्याख्या सामथ्यवान है, इसलिये (मुख्यतः) मन को ही जीतना बहुत ही परिश्रम के साथ सम्पन्न की है। खासकर चाहिये मन को जीतने पर मनुष्य (वास्तव) मे जितेन्द्रिय युक्त्यनुशासन का हिन्दी अनुवाद उन्होंने कितनी सरल होता है-इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है। भाषा मे प्रस्तुत किया है । यह उनकी महत्वपूर्ण दैन है। व्याख्या-यहाँ इन्द्रियों से भी पहले मन को जीतने जो दार्शनिक विषय पर भी इतना अच्छा प्रकाश डालती
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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