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________________ २२० अनेकान्त श्लोक का पद्यानुवाद नीचे दिया जाता है के लिये भाष्यकार को तलस्पर्शी पाण्डित्य के साथ तथ्यों एक दिवस भोजन न मिले या, नींद न निशिको प्रावे, का विश्लेषण करना अनिवार्य होता है । मूल ग्रन्थकार के अग्नि समीपी अम्बुज दल सम, यह शरीर मुरझाये । द्वारा प्रयुक्त एक ही शब्द किन किन किन स्थालों में और शास्त्र व्याधि जल प्रादिक से भी, यह शरीर मुरमावे, किस किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है इसके लिये मूल ग्रन्थ का चेतन क्या पिर बुद्धि देह में ? विनशत अचरज को है। गहराई से पारायण करना पड़ता है । भाष्य लिखते समय मूल ग्रंथ के शब्द को सामने रखते हुए उसके अन्दर इसी तरह प्राचार्य देवनन्दी को 'सिद्ध भक्ति का निहित अर्थ या भाव को सरल भाषा में रखते हुए पद्यानुवाद भी सुन्दर हुअा है, जो 'सिद्ध-सोपान' के नाम वाच्य वाचक सम्बन्ध, अभिधेय, संवेदन और वाक्यार्थ की से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है। वह सुन्दर और कण्ठ अभिव्य जना का परिज्ञान आवश्यक होता है। तभी भाष्यकरने योग्य है-यथा कार मूल ग्रथ के गभीर अर्थ का प्रतिपादन करने मे समर्थ स्वात्मभाव की लब्धि 'सिद्धि' है, होती वह उन दोषों के हो सकता है। उच्छेदन से, अच्छावक जो ज्ञानादिक-गण वन्दों के। योन्य साधनों को सुयुक्ति से; अग्नि प्रयोगादिक द्वारा मुख्तार सा० ने अनुवाद करने से पूर्व स्वामी समन्तहेम-शिला से जग में जैसे हेम किया जाता न्यारा ॥ भद्र भारती के ग्रन्थो का एक शब्दकोष प० दीपचन्द जी इस तरह मुख्तार सा० की गद्य पद्य रचना सभी सुन्दर पाण्ड्या केकडी से तय्यार कराया था। मुलग्रंथ के पाठ और भावपूर्ण है। सशोधन के पश्चात् अनुवाद प्रारभ किया। अनुवाद हो जाने के बाद भाष्य लिखने के लिये ग्रन्थ पोर अनुवाद का व्याख्याकार या भाष्यकार पारायण तथा संशोधन किया, और भाप्य लिखने से पूर्व आप की समस्त कृतियों की संख्या ३०-३५ है जिनमे मूलग्रंथकार की दृष्टि को स्पष्ट करने के लिये विविध कुछ छोटे छोटे ट्रैक्ट भी है । उनमे पापने जिनका अनुवाद ग्रन्थो का परिशीलन किया, तथा लिखते समय उन्हें सामने तथा सम्पादन किया है। उनके नाम इस प्रकार है-पूरा रक्खा । मुख्तार मा. का दृष्टिकोण मूल के हार्द को स्पष्ट तन जैनवाक्य-सूची, वृहत्स्वयंभूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, करना था अतएव उन्होंने मूलग्रथ के पद्यो के अन्दर अध्यात्मरहस्य, समीचीनधर्मशास्त्र, सत्साधुस्मरण मगल मन्तनिहित अर्थ को उसकी गहराई मे जाकर तलदृष्टा पाठ, प्रभाचन्द्र का तत्त्वार्थसूत्र कल्याण-कल्पद्रुम, तत्त्वा वन मूल को स्पष्ट करने वालो व्याख्या या भाष्य लिखा । नुशासन, देवागम (माप्तमीमांसा) योगसार प्राभूत और अनुवाद और भाष्य लिखने में मुख्तार सा० ने अथक श्रम जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सगह (प्रथम भाग) समाधितत्र । किया तभी वह मूल ग्रन्थ के अनुकूल और उपयोगी हो आपकी इन कृतियों का अध्ययन करने से स्पष्ट पता सका है। उसमें उन्होंने अपनी ओर से कुछ भी चलता है कि म स्तार सा० ने इन ग्रन्थों के अनुवाद, मिलाने का प्रयत्न नहीं किया। अतएव वह भाष्य लिखने सम्पादन प्रस्तावनादि लिखने में पर्याप्त श्रम किया है। में कितने सफल हए इसका निर्णय विद्वान पाठक ही कर मूलानुगामी अनुवाद के साथ व्याख्या या भाष्य द्वारा ग्रन्थ सकते है। स्वामी समन्तभद्र के ग्रन्थो का जो अनुवाद और के मर्म को स्पष्ट किया गया है। भाष्यकार को मूल भाष्य लिखा वह कितना परिमाजित और मूलपथकार की लेखक की अपेक्षा उसके हार्द को स्पष्ट करने के लिए दष्टि का अभिव्यंजक है । मैने उसे लिखते समय पढ़ा और विशेष परिश्रम और प्रतिभा का उपयोग करना पड़ता है। बाद मे प्रेस कापी करते हुए भी पढ़ा है मुझे तो उसमें मूल ग्रन्थकार के भावों को अक्षुण्य रखते हुए उनकी कोई स्खलन प्रतीत नही हुआ। कारण कि मुख्तार सा० सरल और स्पष्ट व्याख्या करनी होती है, मूल ग्रन्थ की लिखने में बहुत सावधानी रखते थे। साथ ही शब्दों को तह में (गहराई में) छिपे हुए तथ्यों को प्रकाश में लाने जाँच तोल कर रखते । उनकी लेखनी झटपट और चलता
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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