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उस मृत्युञ्जय का महाप्रयाण
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भी देख लिया । अपने आगे किसी की सुनते ही नहीं, जो है। प्रस्तु, नियोगशक्ति के अनुसार चिकित्सा हो रही है। जो मन में आता करते है...'वे आपको एक लम्बा पत्र जो कुछ होना होगा वह होगा। प्रलंध्यशक्ति भवितव्यता लिखना चाहते हैं, परन्तु स्वास्थ्य ठीक नहीं हो पाता, के मागे किसी का चारा नहीं है, ऐसा स्वामी समन्तभद्र इसलिए नहीं लिख सके, ऐसा कह रहे थे।'
ने सूचित किया है। मेरे लिए चिन्ता की कोई बात नहीं अगस्त-सितम्बर तक मुख्तार सा० की तबियत बहुत है। मैं तो मृत्यु महोत्सव मनाने को तैयार हूँ। मेरा मरण कुछ ठीक हो गई और वह अपने साहित्यिक कार्यों में अच्छा समाधिपूर्वक हो यही मान्तरिक कामना एवं भावना फिर से जुट गए, किन्तु अधिक दिन तक जीवित रहने की है। इसीलिए मैं अपने पड़े हुए कार्यों को निपटा रहा। उनकी आशा अब क्षीण हो चली थी। अपने ३ नवम्बर शेष सब कुशल मंगल है, योग्य सेवा लिखे, बच्चों को के पत्र में उन्होने मुझे लिखा था कि-'ता० ३-१० का शुभाशीर्वाद ।' पत्र मिला, धन्यवाद । द्रव्यसंग्रह सम्बन्धी जो लेख मैं
महाप्रयाण से लगभग एक वर्ष पूर्व लिखे गये इस पत्र लिख रहा था वह समाप्त हो गया है । मेरे १६ पेजों पर
के (बड़े टाइप में मुद्रित) उपरोक्त शब्द स्वर्णाक्षरों में आया है और एक फार्म मे कम का है। आपने उसे अंकित किये जाने योग्य है। वे एक सच्चे जिनानुयायी शोघाङ्क में प्रकाशित कनने के लिए अपने पास भेजने को एवं समन्तभद्र भक्त के ही अनुरूप हैं। यह शब्द यह भी लिखा परन्तु अगला शोधाङ्क २६ तो अब तीन महीने सिद्ध करते है कि अपने निधन से कम-से-कम एक वर्ष बाद प्रकाशित होगा। उस समय तक जीवन की न मालूम पूर्व तो उन्हें अपनी प्रासन्न मृत्यु का प्राभास हो ही गया क्या स्थिति रहती है, इसलिए मै उसे पं० कैलाशचन्द्र जी था और वह उसके लिए तैयार भी हो गए थे। मृत्युभय के पास भेजना चाहता हूँ। जैन सन्देश और शोधाङ्क के को जीतकर वह मृत्युञ्जय हो गए थे। ग्राहक तो एक ही है, अतः उसमे कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।'
इस पत्र मे तथा इसके पूर्व के एवं पश्चात् के पत्रों अपने १३ दिस० ६७ के पत्र में उन्होंने लिखा-'ता.
मे अन्य अनेक ऐसी बातें और चर्चाएँ भी हैं जिनसे ६-१२ का पत्र मिला। आपने मेरे ६० वर्ष पूर्ण करके
स्पष्ट है कि इतने वार्धक्य, रुग्णावस्था और जीवन के ६१वें वर्ष में प्रवेश पर अपनी शुभकामना, बधाई तथा
अन्तिम मासों मे भी उनका मस्तिष्क पूर्ववत सजग, सप्राण श्रद्धांजलि प्रेषित की, इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ।
और क्रियाशील था। शोध-खोज, चिन्तन-मनन, पठन...... 'मैं तो अपने ३ नवम्बर के पत्र के उत्तर की प्रतीक्षा
अध्ययन और लेखन-सृजन भी चलते रहे। इस काल के कर रहा था..... कोई सवा महीना हुआ रविवार के
उनके लेखादिकों में उनका वही भोज और स्तर बना दिन मैने योगसार प्राभूत की प्रस्तावना लिखने का
रहा जिसके लिए वह प्रसिद्ध रहे है। उनकी लेखनी वैसी निश्चय किया था कि रविवार के सुबह से ही ज्वर पा
ही सधी हुई और निष्कम्प बनी रही। गया और मेरा विचार धरा रह गया.....' तदनन्तर ५ जनवरी ६८ के पत्र में उन्होंने लिखा था कि-'ता. २४ लगभग चालीस वर्ष मेरा उनके साथ सम्पर्क रहा और दिसम्बर का पत्र मिला...."मेरा स्वास्थ्य अभी तक गड़- गत तीस वषा म कई बार अल्पाधिक बड़ में ही चला जाता है, गुदों की खराबी के कारण पैरों उसका सत्संग प्राप्त हुआ और सैकड़ों पत्र प्राप्त हुए, पर और पैरों के ऊपर टागो पर घुटनों के नीचे तक वरम ।
जिनमें से अनेक ऐतिहासिक, साहित्यिक अथवा सामाजिक कुछ ठहर सा गया है, जिससे पर कुछ कच्चे पड़ रहे हैं।
महत्त्व के हैं। वह मेरे पितृव्यों की प्रायु के थे और मैं और टांगों में कमजोरी है जिसके कारण बैठकर उठने में उन्हें पितृव्य तुल्य ही मानता रहा । वह भी मुझे भ्रातृजदिक्कत मालूम होती है और बिना किसी वस्त के सहारे तुल्य मान कर वैसा ही वात्सल्य प्रदान करते रहे। के उठा नहीं जाता । पैरों की कचाई और टांगों की कम- उनके २३ जनवरी ६८ के पत्र का उत्तर ३० जनवरी जोरी के कारण दो एक बार मेरे गिरने की नौबत माई को दे दिया था, किन्तु उसके बाद अस्वास्थ्यादि के कारण