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________________ २२६ अनेकान्त पत्र देने में कुछ प्रमाद हुमा तो अपने ९ मार्च के पत्र मे कि-"ता०८ जुलाई का पत्र मिला, धन्यवाद....""समय उन्होंने लिखा कि-'कितनेही दिन से प्रापका कोई पत्र नहीं बीतता जा रहा है, कार्य शीघ्रता से होना चाहिये । जीवन पाया है.'''नही मालूम क्या कारण है। प्राशा है आप का कोई भरोसा नहीं । मैं चाहता हूँ कि मेरे जीवन में का स्वास्थ्य तो ठीक है और कुटुम्ब के सब व्यक्ति सानन्द ही संस्था और पत्र की कोई योग्य व्यवस्था बन जाय... हैं।' इस पत्र का उत्तर मैने १५ मार्च को दिया, किन्तु मेरे गुर्दो का मूल रोग ज्यों का त्यों है । ज्वर न होने पर इसके पहुंचने के पहिले वह १६ मार्च को एक पत्र दे चुके कछ काम कर लेता हैं। बच्चों को आशीर्वाद ।"-यही जिसमें लिखा था-'कितने ही दिन से प्रापका कोई पत्र उनका मुझे प्राप्त अन्तिम पत्र है। नही है....."न मार्च को दिये गये पत्र का ही कोई उत्तर है। नहीं जाने इस असाधारण विलम्ब का क्या डा० श्रीचन्द्र जी के पत्र से ज्ञात हुआ कि मुख्तार कारण है । इससे चिन्ता हो रही है । श्राशा है आपका सा० पुनः अतिरुग्ण हो गये है। २६ जुलाई को मै अपने स्वास्थ्य तो ठीक होगा। अपने स्वास्थ्य सम्बन्धादि के अनुज अजितप्रसाद जैन के साथ उन्हें देखने के लिए एटा विषय में शीघ्र ही सूचित करने की कृपा करें और पत्रो गया। वह खाट से लग गये थे, बोल भी थक गया था, शक्तिया क्षीण होती जा रही थी। तथापि देखकर गद्गद् का उत्तर अवश्य ही देने-दिलाने का कष्ट करे ।' २६ जून के पत्र में उन्होंने लिखा था कि 'प्रतीक्षा के बाद २३ जून हो गये और लेटे ही लेटे प्रसन्न मन से बात चीत की। यही मेरे लिये उनका अन्तिम दर्शन था। का पत्र मिला । यह जानकर कि पाप व्यस्तता के साथ कुछ अस्वस्थ भी रहे हैं, अफसोस हुआ । मै कुछ ज्यादा ५ नवम्बर को विद्वत्परिषद द्वारा एटा मे ही मुख्तार अस्वस्थ हो गया था। प० दरबारी लाल जी पाये थे, साहब के अभिनन्दन की रस्म अदा की जानी थी उसमे बहन जयवन्ती भी पाई थी। इसी अवसर पर दस्ट मीटिंग सम्मिलित होने के लिये बन्धुवर कोठिया जी का पत्र मिला। भी बुलाई गई थी....."अब मुझे नये सिरे से अपने ट्रस्ट पत्र २ ता० को लिखा गया था, किन्तु सम्भवतया डाक की व्यवस्था करनी है, इस सम्बन्धमे आपके जो भी सुझाव की गडबड़ से, मुझे ५ को ही मिला। जाने का प्रश्न ही हों उनसे शीघ्र सूचित करने की कृपा करे.... मेरा नहीं था, और उनके अंतिम दर्शन का यह अवसर चूक विचार अब समन्तभद्र पत्र को मासिक रूप मे निकालने गया । २६ दिस० को प्राप्त डा० श्री चन्द्र जी आदि के का प्रबल होता जाता है......मैं अपने जीवन मे उसे पत्र से ज्ञात हा कि २१ दिसम्बर ६८ को-६१ वर्ष प्रकाशित देखना चाहता हूँ।"-खेद है कि ऐसा न हो और २२ दिनकी आयु मे वर्तमान युग के इस मृतुञ्जय सका। इसके बाद १२ जुलाई के पत्र मे उन्होने लिखा का महाप्रयाण हो गया ! गणों की इज्जत एक प्रादमी हलवाई की दुकान पर गया, और दोने में गुलाब जामुन लेकर चला। दोना रेशमी रुमाल से डक दिया। दोना प्रसन्न हो मन में सोचने लगा-इस दुनिया में मेरे जैसा भाग्यशालो कोई नहीं है, मुझे रेशमी वस्त्र से ढका गया है। वह प्रादमी दोना लेकर अपनी हवेली में पहुंचा। और चौथी मंजिल पर उसे एक सुन्दर रबिल पर रखा । दोना फूल गया अभिमान में। ग्रहो मेरी कसी इज्जत हो रही है। मुझे बैठने के लिए कैसा सुन्दर मासन मिला है, राजा महाराजामों की तरह मेरा स्वागत हो रहा है । सभी लोग मुझे उच्च दृष्टि से देख रहे हैं। किन्तु उस अभिमानी दोने को यह खबर नहीं थी कि यह इज्जत, प्रतिष्ठा, और स्वागत मेरा हो रहा है या गुलाबजामुन का । गुलाबजामुन के बिना दोने की क्या कीमत ? कुछ ही देर बाद दोना से गुलाबजामुन तस्तरी में रख दिये, और उस बेकार दोना को नीचे फेंक दिया गया। प्रब दोने को भान हुमा, प्रांखें खुली, प्रौर महंकार का नशा उतरा। इसी तरह शरीर की कोई इज्जत नहीं है। यदि शरीर रूपी बोने में सदगुण रूपी मुलाबजामुन होंगे तो उसकी पूछ होगी, प्रतिष्ठा बढ़ेगी। उसका सत्कार होगा। सगुनों के प्रभाव में उसका कोई मूल्य नहीं। (जैन भारती)
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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