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मागम और त्रिपिटकों के संदर्भ में प्रजातशत्रु कुणिक
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देवदत्त के शिष्य मिण्डिका-पुत्र उपक ने बुद्ध से चर्चा बुद्ध के अथवा बौद्ध संघ के अन्य किसी भिक्षु के ती की; प्रजातशत्रु के पास प्राया और बुद्ध की गर्दा करने कभी दर्शन किये और न उनके साथ धर्म-चर्चा ही की। लगा । पर अजातशत्रु क्रोधित हुआ और उसे चले जाने के और न मेरे ध्यान में यह भी प्राता है कि उसने बुद्ध के लिए कहा। अट्टकथाकार' ने इतना और जोड दिया है जीवन-काल मे भिक्षु-संघ को कभी आर्थिक सहयोग भी कि अजातशत्रु ने अपने कर्मकगे से उसे गलहत्था देकर दिया हो । निकलवाया । इस प्रसंग से भी अजातशत्रु का अनुयायित्व "इतना तो अवश्य मिलता है कि बुद्ध निर्वाण के सिद्ध नहीं होता। अशिष्टता से चर्चा करनेवालो को तथा पश्चात् उसने बुद्ध की अस्थियो की मांग की, पर वह भी मुखर गर्दा करनेवालो को हर बुद्धिमान् व्यक्ति टोकता ही यह कह कर कि 'मैं भी बुद्ध की तरह एक क्षत्रिय ही हूँ है। यदि उपक अजातशत्रु को बुद्ध का दृढ अनुयायी मानता, और उन अस्थियो पर उसने फिर एक स्तूप बनवाया । तो अपनी बीती मुनाने वहां जाता ही क्यो ? अपने गुरु दूसरी बात- उत्तरवर्ती ग्रन्थ यह बताते है कि बुद्ध-निर्वाण देवदत्त का हितैषी समझ कर ही उसने ऐसा किया होगा। के तत्काल बाद हो जब राजगृह मे प्रथम संगीति हुई, तब
उत्तरवर्ती साहित्य में कुछ प्रमग से भी मिलते है. अजातशत्रु ने सप्तपणी गुफा के द्वार पर एक सभा-भवन जो बौद्ध धर्म के प्रति प्रजातनत्र का विद्वेष व्यक्त करते बनवाया था, जहाँ बौद्ध पिटको का संकलन हमा, पर इस है । अवदानशतक के अनुसार राजा बिम्बिसार ने बुद्ध की बात का बौद्ध धर्म के प्राचीनतम और मौलिक शास्त्रों में वर्तमानता मे ही बुद्ध के नख और केशो पर एक स्तूप लेशमात्र भी उल्लेख नहीं है। इस प्रकार बहुत सम्भव है अपने राजमहलो में बनवाया था। राजमहल की स्त्रियाँ कि उसन बाब धम का बिना स्वाकार किये ही उसके प्रति धूप, दीप और फलों से उसकी पूजा किया करती थी। सहानुभूति दिखाई हो। यह सब उसने कंवल भारतीय अजातशत्र ने सिहासनारूढ़ होते ही पूजा बन्द करने का राजाग्रा की उस प्राचीन परम्परा के अनुसार ही किया हो प्रादेश दिया । श्रीमती नामक स्त्री ने फिर भी पूजा की तो कि सब धमों का सरक्षण राजा का कर्तव्य होता है" उसे मृत्यु-दण्ड दिया । थेरगाथा-पटकथा के अनुसार माता का दोहद अजातशत्रु ने अपने अनुज सीलवत् भिक्षु को मरवाने का कुणिक के जन्म और पितृ-द्रोह का वर्णन दोनों ही भी प्रयल किया। उक्त उदाहरण अजातशत्रु को बौद्ध परम्परागो में बहुत कुछ समान रूप से मिलता है। जैन धर्म का अनुयायी सिद्ध न कर प्रत्युत विगंधी सिद्ध करते पागम निरयावलिका और बौद्ध शास्त्र दीघनिकाय-प्रकथा है; पर इनका भी कोई आधारभून महत्व नहीं है। मे एतद्विपयक वर्णन मिलता है। दोनो ही परम्परामो के
बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ राईस डेविड्स भी स्पष्टत. अनुमार इसके पिता का नाम थेणिक (बिम्बिसार) है। लिखते है-"बातचीत के अन्त में अजातशत्रु ने बुद्ध को माता का नाम जैन परपरा के अनुमार चेल्लणा तथा बौद्ध स्पष्टतया अपना मार्गदर्शक स्वीकार किया और पित-हत्या परम्परा के अनुसार कोसलदेवी था। माता ने गर्भाधान का पश्चाताप व्यक्त किया। किन्तु यह असदिग्धतया व्यक्त
के अवसर पर सिंह का स्वप्न देखा। बौद्ध परम्परा मे किया गया है कि उसका धर्म-परिवर्तन नही किया गया। ऐसा उल्लेख नहीं है। गर्भावस्था में माता को दोहद उत्पन्न इस विषय में एक भी प्रमाण नही है कि उस हृदयस्पर्शी हुमा । जैन परम्परा के अनुसार दोहद था-राजा श्रेणिक प्रसंग के पश्चात भी वह बुद्ध की मान्यतापो का अनुसरण के कलेजे का मांस तल कर, भूनकर मैं खाऊ और मद्य करता हो। जहाँ तक मै जान पाया है, उसके बाद उसने पीऊ । बौद्ध परम्परा के अनुसार दोहद था-राजा १ अंगुत्तर निकाल, ४-८-१८८
श्रेणिक की बाहु का रक्त पीऊ। दोनो ही परम्परागों के २ Encyclopaedia of Buddhism, p. 319
अनुसार राजा ने दोहद की पूर्ति की। जैन परम्परा के ३ अवदानशतक, ५४
अनुसार अभयकुमार ने ऐसा छद्म रचा कि राजा के कलेजे ४ थेरगाथा-पटकथा, गाथा ६०६-१६
___३ Buddhist India, pp. 15-16