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मथुरा के सेठ लक्मीचन्द सम्बन्धी विशेष जानकारी
संस्कृति के सहायक महानुभाव' शीर्षक के अन्तर्गत 'मथुरा मनीराम अत्यन्त विश्वास पात्र.और चतुर मुनीम था और का सेठ घराना' उपशीर्षक मे सेठ मनीराम, सेठ लक्ष्मी- उसका उत्तराधिकारी समझा जाता था। गोकुलदास चन्द और उसके उत्तराधिकारी का विवरण दिया गया है पारिख मनीराम आदि के साथ सवत् १८७० मे नागामो व अन्त मे मेठ घराने का वश-वृक्ष भी दे दिया गया है। की सम्पति को लेकर ब्रज मे आ गया। मथुरा में श्री सबसे पहले भूमिका के रूप में यह लिखा गया है कि द्वारिकाधीशजी का मदिर सवन् १८७१ मे बनाया और "अग्रेजो के शासनकाल मे ब्रज की बिगड़ी हुई धार्मिक सेवा-पूजा मे मनीराम मनीम का बड़ा सहयोग रहा । और सास्कृतिक स्थिति को यथासम्भव सुधारने के कार्य मनीराम खण्डेलवाल वैश्य और श्रावको जैन था। उसके मे जिन महानुभावो ने अपना योग दिया था उनमे मथुरा ज्येष्ठ पुत्र लक्ष्मीचन्द को पारिख जी ने उत्तराधिकारी के सेटो का स्थान सर्वोपरि है। उन्होंने व्रज सस्कृति के घोषित किया और निमा.
घोपित किया और लिखा-पढी कर समस्त सम्पत्ति मनीराम विविध क्षेत्रो मे अपने अपार वैभव का विनियोग करते
को सौप दी। सवत् १८८३ मे पारिख जी का देहान्त हो हए बडी महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की। उनके द्वारा गया। पारिख जी के वृतान्त का सक्षिप्तसार देने के निर्मित मथरा का श्री द्वारिकाधीश का मन्दिर पोर वृन्दा- बाद मनीराम, लक्ष्मीचन्द प्रादि का पूरा विवरण नीचे वन का थीरगजी का मन्दिर ब्रज की धार्मिक और दिया जा रहा हैसास्कृतिक प्रवृत्तियो के केन्द्र रहे है। सेठ घराने के प्रमुख सेठ मनीरामः-- व्यक्तियो का सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -
वह जयपुर राज्यातर्गत मालपुरा ग्राम का निवासी गोकुलदास पारिख-ग्वालियर मे गोकुलदास पारिख एक जैनी खण्डेलवाल वैश्य था। घर की दरिद्रताके कारण एक गजराती वैश्य था। वह पहले एक सामान्य कर्मचारी बर अपने जन्म-स्थान को छोड़कर ग्वालियर पा गया था। था किन्तु अपनी प्रतिभा और कर्तव्य परायणता से सिधिया
और वहा गोकुलदास, पारिख जी की मवा में रहने लगा
और बटा नरेश का विश्वास पात्र पदाधिकारी और राज्य का
था। अपनी योग्यता तथा चतुरता के कारण उसकी उन्नति खजाची हो गया था। उस काल में उज्जैन के नागा
भी होती गयी थी। जब पारिख जी ने पाकर ब्रज मे मन्यासियो ने बडा उपद्रव कर रखा था । अन्त में दौलत
निवाम किया, तब वह भी उसके साथ वहा पा गया था । राव सिंधिया ने नागाग्रो का दमन करने के लिये पारिख
उसके तीन पुत्र थे। (१) लक्ष्मीचन्द (२) गधाकृष्ण जी को राजकीय संनिको के साथ उज्जैन भेजा था।
और ( ३ ) गोविददास । पारिख जी के चातुर्य और रण कौशल से नागापो की पूरी
जैसा पहिले लिखा गया है पारिख जी ने अपनी मृत्यु तरह पराजय हो गई । नागा साधुग्रो द्वारा अनेक वर्षों से
से पहले लक्ष्मीचन्द को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर सचित करोडों की धनराशि पर पारिख जी का अधिकार
अपनी समस्त सम्पत्ति मनीगम को सौप दी थी। पारिख हो गया। वह उस सचित सम्पति को लेकर ग्वालियर जी की मत्य होने पर उसके भाई-भतीजो ने अपने वापस पा गया। राजकीय प्रतिष्ठा के साथ ही पारिख अधिकार के लिए मनीराम-लक्ष्मीचन्द के विरुद्ध मुकदमा जी का धन-वैभव भी बढ़ गया। जिस स्थान पर वह दायर किया था। वह मुकदमा कई वर्ष तक चलता रहा रहता था वह पारिख जी बाडा लश्कर में आज भी प्रसिद्ध था। अत मे उसका निर्णय मनीराम-लक्ष्मीचन्द के पक्ष में है। पारिख जी वल्लभ सम्प्रदाय का अनुयायी था। ही या था । उसने अपने निवास स्थान पर श्री द्वारिकाधीशजी का एक मनीराम ने पारिख जी की विपूल सपत्ति को धर्मादे मदिर बनवाया था। उसके अधीनस्थ कर्मचारियों मे दो में लगाने के साथ ही साथ कारवार में भी लगाया थ मुनीम भी थे-(१)मनीराम और ( २ ) चम्पाराम'। उसने मनीराम लक्ष्मीचन्दके नामसे एक व्यापारिक प्रतिष्ठान १. देखो मेरा वन्दावन के दीवान चम्पाराम की कृतिया की स्थापना कर उसके द्वारा लेन-देन का कारबार प्रारभ जैनशोधांक २२
किया जिससे वह संपत्ति दिन-रात बढने लगी। उसके