SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मथुरा के सेठ लक्षमीचन्द सम्बन्धी विशेष जानकारी श्री अगरचन्द नाहटा 'सन्मति सदेश' जनवरी '६६ के अक मे "दो जनो के सध, चौरासी मथुरा के विद्वान से उपलब्ध की जा सकती वैष्णव हो जाने के उल्लेख" शीर्षक मेरा लेख छपा है। है।" उसमे यमुनावल्लभ रचित रसिक भक्तमाल का एक पद्य । - वास्तव मे श्रीरगजी का मदिर बनवाने के कारण ही उद्धृत किया गया था जिसमें सेठ श्री लक्ष्मीचन्द के सबध रसिक भक्तमाल मे उनको वैष्णव अनुरागी होना लिख मे यह लिखा गया था कि "जैन धर्म क त्यागि, भये वैष्णव दिया है। उ-होने जैन धर्म का त्याग नही किया था। अनुरागी" इस पंक्ति के सबध मे मैने यह लिखा कि 'सेठ । रसिक भक्तमाल के पद्य के अन्तिम चरण मे श्री लक्ष्मीचन्द लक्ष्मीचन्द के वंशज अभी भी विद्यमान होंगे। ये किसी के साथ राधाकिसन और गोविन्ददास का उल्लेख है वे कारण से, कब जैन धर्म को छोडकर वैष्णव बने इसकी हा रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी हो गये थे। इस बात जानकारी मथुरा, वृन्दावन के जैन बधु प्रकाशित कर सके। का स्पष्ट उल्लेख श्री प्रभुदयाल जी मीतल के हाल ही तो अच्छा हो' । खेद है कि मेरे उस निवेदन पर मथुरा, म में प्रकासित ग्रन्थ मे हुया है जिसमे श्री रग जी के मदिर वृन्दावन के किसी भी जैन बधु ने कुछ भी प्रकाश नही को सेठ लक्ष्मीचन्द से छिपाकर सेठ राधाकिसन व गोविन्दडाला । पर दिल्ली के श्री कुन्दनलाल जैन ने तारीख दास ने संवत् १९०२ मे बनाना प्रारम्भ किया ६१-६६ के पत्र मे मेरे उक्त लेख को पढ़कर लिखा कि किन्तु धन की यथेष्ट व्यवस्था न होने से उसका निर्माण कार्य रोक देना पडा । जब सेठ लक्ष्मीचन्द को इस बात "मथुरा के सेट लक्ष्मीचन्द जी का वैष्णव हो जाने का की जानकारी हुई तो उन्होने इसे पूरा करा दिया। इस उल्लेख सर्वथा भ्रमपूर्ण है । वे जैन थे और अन्त तक जैन प्रकार ४५ लाख रुपये की लागत का यह मन्दिर सवत् रहे। यह बात दूसरी है कि उनका वैष्णव सम्प्रदाय की १९०८ मे पूग हुमा। पोर झुकाव केवल अपना व्यक्तित्व स्थिर रखने के लिए चौरासी के जन मन्दिर के सबध मे श्री प्रभुदयालजी हो गया था । मथुरा चौरासी का विशाल जैन मदिर सेठ मीतल ने लिखा है कि 'मथुरा चौरासी नामक प्राचीन लल्मीचन्द जी का ही बनाया हया है। जब वे यह जैन सिद्ध क्षेत्र मे मनीराम द्वारा निर्मित यह एक दिगम्बर मदिर बनवा चुके तो वैष्णवो का आग्रह हुआ कि अापके मन्दिर है। इसमे पहले श्रीचन्द्रप्रभ की व बाद में द्रव्य का सदुपयोग श्री रग जी के लिये भी होना चाहिये। श्री अजितनाथ की प्रतिमा, प्रतिष्ठित की गई थी। ब्रज उन्होंने अपनी उदारता प्रकट करने के लिये वह मदिर भी मण्डल जैनधर्म का यह सबसे प्रसिद्ध केन्द्र है। बनवा दिया। वे नगर के सेठ थे। सभी लोग उनसे दिगम्बर जैन मन्दिर चौरासी के विद्वानो को बहा पाशाएँ रखते थे अत उन्हें सभी को सन्तुष्ट रखना पड़ता के शिलालेख और कागजातो से सही और विस्तृत जानथा। उनकी औरस सन्तान तो कोई न थी पर गोद की कारी प्रकाश में लानी चाहिए। जिभा चल रहा है । वहा सल भगवानदास उसा उपयूक्त श्री प्रभुदयाल मीतल का 'बज का सास्कृवश की गोद मे पाये है। द्वारिकाधीश के मदिर के सामने तिक इतिहास' प्रथम भाग राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली उनकी बड़ी विशाल अतुल सम्पत्ति है । मै मथुग ५ वर्ष से प्रकाशित व प्रसारित हुआ है उसके पृष्ठ ५४६ से ५५० ( १९४६-५१ ) तक रहा हूँ सो मुझे इतनी जानकारी मे सेठ मनीराम और लक्ष्मीचन्द तथा उनके वशजो के उपलब्ध हो सकी थी। विशेष जानकारी दिगम्बर जैन सम्बन्ध मे महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रकाशित हुई है। 'बज
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy