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________________ वर्शन और विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में : स्यावाद और मापेक्षवाव जितना प्रात्मा से सम्बन्धित है, उतना पुदगल (भूत) से अधिक चौडी होती जा रही थी, इस प्रकार से यदि भी। जब वह समानतया दोनों के ही विषय में यथार्थ चिन्तन समान धारा से बहने लगेगा, तो सम्भव है कि निर्णय देता है, तो इस अर्थ में अपने पाप सिद्ध हो जाता भविष्य के किन्हीं क्षणो में वह खाई पट सकेगी। है कि जितना वह प्राध्यात्मिक है उतना ही वह भौतिक स्याद्वाद को सशयवाद के रूप में समझने की जो एक भी। यद्यपि वैज्ञानिको का बिपय भौतिक विद्या ही है, भूल चली आ रही थी, लगता है, सापेक्षवाद के द्वारा यत मापेक्षवाद का लक्ष्य उसमे पागे नहीं बढ़ पाया, समथित उसकी वैज्ञानिकता उमको नामशेष ही कर इसलिए वह भौतिक पद्धति ही मान जाता है। पर वास्तव देगी। में यह भी म्याद्वाद की तरह वस्तु को परखने की एक दर्शन से पगड्मुख व विज्ञान के प्रति श्रद्धालु व्यक्तियों प्रणाली है। इसे प्राध्यात्मिक या भौतिक कुछ भी कहे को स्याद्वाद व सापेक्षवाद को पूर्वोक्त समानता यह सोचने यह अधिक यथार्थ नही है। फिर भी इस यदि भौतिक का अवसर देगी कि दर्शन जैसा कि वे समझते है एक पद्धति भी माने तो भी परमाणु से ब्रह्माण्ड तक के भौतिक भझबझागरी कल्पना नही बल्कि चिन्तन की एक प्रगति(पौद्गलिक) पदार्थ तो स्यावाद व मापेक्षवाद दोनो के शील धारा है, जिसकी दिशा में विज्ञान प्राज आगे बढ़ने विषय होते। इमलिए म्याद्वाद और सापेक्षवाद के मम को प्रयत्नशील है। दोनो वादो की ममानता मे हर एक प्रशो की तुलना अपना एक महत्व रखती है। तटस्थ विचारक को यह तो लगेगा ही कि स्यावाद ने म्याद्वाद और सापेक्षवाद की प्राश्चर्योत्पादक ममता दर्शन के क्षेत्र में विजय पाकर अब वैज्ञानिक जगत् में से हमारे चिन्तन के बहुत मारे पहल उभर आते है । माज विजय पाने के लिए मापेक्षवाद के म्प में जन्म तक जो दर्शन और विज्ञान के बीच की खाई अधिक से लिया है। अपनत्व एक दिन कवि बगीच मे जा पहुंचा। वृक्षो व लताम्रो की शीतल छाया मे उसका मानम अतिशय प्रीणित होने लगा। इधर-उधर पर्यटन करते हुए सहसा उमकी दृष्टि माली पर पडी। वह मविम्मय मुस्कगया और चिन्तन के उन्मुक्त अन्तरिक्ष मे विहरण करने लगा। माली ने भी उसे निहारा उसकी भाव-भंगिमा देखकर उमसे मौन नही रहा गया। उसने पूछा-विज्ञवर ! मुस्कराहट किम पर प्रकृति के ये वग्द पुष्प अापके मन में गदगुदी उत्पन्न कर रहे है या मेरे कार्य को देख कर कवि-माली । मेरी हंसी का निमित्त अन्य कोई नही, तू ही है, जहाँ एक पोर तू कुछ एक पौधों की काट-छाट कर रहा है.-निर्दय बनकर कैची का प्रयोग कर रहा है, वहाँ दूसरी और कुछ पौधे लगा भी रहा है । उनमे पानी सीच रहा है, सार सभाल कर उन्हे पुष्ट कर रहा है। यह नेग कसा व्यवहार । इस भेदबुद्धि के पीछे क्या रहस्य है ' नेरी दृष्टि मे मब वृक्ष समान है। फिर भी एक पर अपनत्व, अन्य पर परत्व, एक को पुचकाग्ना और एक को ललकारना । तेरे जैसे सरक्षक के व्यवहार में इम अन्नर का क्या कारण है? माली-कविवर | मेरे पूर्वजों ने मुझे यही भली भाति प्रशिक्षण दिया था कि मनुप्य को अपने कर्तव्य पर अटल रहना चाहिए । मेरा प्रति कदम उसी तत्त्व को परिपुष्ट करने के निमित्त उठना है; क्योकि मुझे उद्यान की मुन्दरता को सुरक्षित रखना है। इसका प्रतिदिन विकास करना मेरा परम धर्म है। अत में जो कुछ कर रहा हूँ वह भेदबुद्धि से नही, अपितु ममबुद्धि से कर रहा है। यह मेरा पक्षपात नही, माम्य है। केवल बहिरंग को ही न देखकर अन्तरग की परतों को भी खोलना चाहिए। यदि ऐसा किया गया तो पापको स्पष्ट ज्ञान होगा कि मेरी इस प्रवृत्ति के पीछे प्रत्येक पौधे के साथ मेरा कितना अटूट एवं निश्छल अपनत्व है। -मनि कन्हैयालाल
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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