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________________ १०० भनेकान्त शकराचार्य ने स्याद्वाद को सशयवाद या अनिश्चित- दही खाने का पदार्थ है दधित्व की अपेक्षा से, न कि द्रव्य वाद कहा । सम्भवतः उन्होंने 'स्यादस्ति' का अर्थ 'शायद होने के मात्र से; इसलिए दही के साथ भैस की बात है' ऐसा समझ लिया हो पर स्याद्वाद सशयवाद नहीं है। जोडना मूर्खता है । इसके अनुसार वस्तु अनन्त धर्मवाली है। हम वस्तु के सापेक्षवाद की मालोचना का भी लम्बा इतिहास बन विषय में निर्णय देते किसी एक ही धर्म (गुण) की अपेक्षा चुका है। यह सत्य है कि सापेक्षवाद माज वैज्ञानिक जगन् करते है किन्तु उस समय वस्तु के अन्य गुणी भी उसी मे गणितसिद्ध सर्वसम्मत सिद्धान्त बन गया है और यह वस्त में ठहरते है इसलिए 'स्यादस्ति' अर्थात् 'अपक्षा माना जाने लगा है कि इस सदी का वह एक महान् विशेष स हैं का विकल्प यथार्थ ठहरता है। वहाँ अनि- अाविष्कार और मानव मस्तिष्क की सबसे ऊंची पहुच श्चितता और सन्देहशीलता इसलिए नहीं है कि स्यादास्त है। पर इसकी जटिलता को हृदयगम न कर सकने के के साथ 'एव' शब्द का प्रयोग और होता है। इसका कारण प्रारम्भ में मालोचकों का क्या रुख रहा, यह एक तात्पर्य म्याद्वादी किसी भी वस्तु के विषय म निणय दत दिलचस्प विषय है। एक सुप्रसिद्ध व अनुभव इजीनियर ए कहेगा अमुक अपेक्षा से ही ऐसा है। प्रश्न उठता है सिडने TO रवि ने कहा है-"ग्राईस्टीन का सिद्धान्त कि 'अमक अपेक्षा म' ऐमा क्यों कहा जाय ' इसका उत्तर निरी ऊटपटाग बकवास है" दार्शनिक गगन हेमर ने होगा इसके बिना व्यवहार ही नहीं चलेगा। अमुक रखा लिग्वा है-"प्राईस्टीन ने तर्क शास्त्र में एक मूर्खतापूर्ण रेखा छोटी है या बड़ी यह प्रश्न ही नही पैदा होगा। जब मौलिक भूल की है।" इस प्रकार म्याद्वाद की तरह तक कि हमारे मस्तिष्क में दूसरी रेखा की कोई कल्पना . __ सापेक्षवाद की भी विचित्र समालोचनाए हुई, पर आज न होगी। इस स्थिति मे अनिश्चितता नही किन्तु यथार्थता कर वह वैज्ञानिक जगत मे बीसवी सदी का एक महान् प्रावियह होगी कि रेखा बड़ी या छोटी है भी, नही भी। यह कार मममततया मान लिया गया। तर्क एस. के. बेलवालकर के तर्क पर लागू होता है। (एस) हो सकता है, नही हो सकता है आदि विकल्पी __ उपसंहार को समझने के लिए क्या यह सर्वमान्य तथ्य नही होगा कुछ एक विचारको का मत है कि स्याद्वाद और कि रेखा बडी भी है छोटी की अपेक्षा से। छोटी बड़ी सापक्षवाद में कोई तुलना नही बैठ सकती; क्योकि स्यादोनों ही नही है मम रेखा की अपेक्षा से । तथा प्रकार से द्वाद एक आध्यात्मिक सिद्धान्त है और सापेक्षवाद मौलिक है अग्रेजी भाषा की अपेक्षासे, एस लुप्न प्रकार का वस्तुस्थिति यह है कि दोनो ही वाद निर्णय को पद्धतियां चिह्न है सस्कृत भाषा की दृष्टि से दोनो है भाषाओं की है, अतः कोई भी आध्यात्मिकता या भौतिकता तक अक्षा से, दोनों नही है अन्य भाषामो की अपेक्षा से। मीमित नहीं है । यह एक गलत दृष्टिकोण है कि स्याद्वाद . आध्यात्मिकता तक सीमित है। वह तो अपने स्वभाव से स्याद्वाद कोई कल्पना की आकाशी उडान नही बल्कि जीवन-व्यवहार का एक बुाद्धगम्य मिद्धान्त हा लागा न १. Relativity is probably the forthest reach 'है और नही भी' के रहस्य को न पकड कर उस सन्देह that the human mind has made into वाद या सगयवाद कह डाला, किन्त चिन्तन की यथार्थ "Unkaun." दिशा मे पाने के पश्चात् वह इतना सत्य लगता है जैसे -Exploring the Universe, p. 197. दो और दो चार । अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल व गुण (मान) २ 'Einstein theory is arrant non-sense.' की अपेक्षा में प्रत्येक पदार्थ है और पर द्रव्य क्षेत्र आदि -Cosmology Old and New, p. 197. की अपेक्षा से प्रत्येक पदार्थ नही है, यही 'स्यादस्ति' और ३. Einstein has made a very silly basic errar 'स्यान्नास्ति' का हार्द्र है। दही व भैस एक है द्रव्यत्व की in logic. अपेक्षा से, एक नही हैं दधित्व व महिषत्व की अपेक्षा से। -Cosmology Old and New p. 197.
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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