________________
२३८
अनेकान्त
स्व. प्रेमी जी ने अपने लेख संग्रह में जैन कथाओं के एवं मनन करने के उपरान्त अपने विचार प्रकट करते हुए सम्बन्ध में, जैनेतर ग्रन्थों का सहारा लेकर कतिपय ऐसे लिखा है कि 'सूर्यशतक का असर या प्रभाव एकोभाव उद्गार व्यक्त किये हैं, जिन्हें प्रश्रद्धा मूलक बताया है। स्तोत्र पर कहीं भी लक्षित नहीं होता है। कथानक में प्रेमी जी का कथन है कि ये जैन कथाएँ बहुत पुरानी हैं असम्भव या अप्राकृतिक जैसी कोई बात नहीं हैं। ऐसा और उन लोगों द्वारा गढ़ी गई हैं जो ऐसे चमत्कारों से भी कोई उल्लेख नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि ही प्राचार्यों और भट्टारकों की प्रतिष्ठा का माप किया जिनेन्द्रदेव ने वादिराज की स्तुति से प्रसन्न होकर उनका करते थे। बेड़ियों को तोडकर कैद मे से बाहर निकल रोग दूर कर दिया। युगवीर जी का कथन है कि जब आना साँप काटे हुए पुत्र का जीवित हो जाना आदि स्तोत्र के प्रथम पद्य मे ही स्तोत्रको 'भवभवगत घोर-दु.खऐसी चमत्कारपूर्ण कथाएँ पिछले भट्टारकों द्वारा गढी हुई प्रद एव दुनिवार कर्मबन्धन' को भी दूर करने में समर्थ प्रचलित हैं जिन्हे प्रेमी जी ने असम्भव और अप्राकृतिक बताया गया है। फिर ऐसे योगबल की प्रादुर्भूति के आगे बताया है तथा यह भी स्वीकार किया है कि ऐसी कथाएँ शरीर मे रोग कैसे ठहर सकता है जो कि एक कर्म के जैन मुनियों के चरित्र को और उनके वास्तविक महत्व । उदय का फलमात्र है। आगे अन्य युक्तियुक्त प्रमाण प्रस्तुत को नीचे गिराती है। प्रेमी जी ने अपने कथन से सम्ब- करते हए युगवीर जी ने लिखा है कि लोकोपकारी भावना न्धित कतिपय तर्क भी प्रस्तुत किये है जिनमे उन्होने से मूनि जी ने रोगमुक्त होने के लिए भक्तियोग का आश्रय 'एकीभावस्तोत्र' को 'सूर्यशतकस्तवन' की कथा का अनु- लिया था जिसका उल्लेख स्तोत्र के १०वे पद्य में “तस्याकरण बताकर,-जिन-भगवान को 'कर्तुमकर्तुमन्य- शक्य. क इह भुवने देवलोकोपकारः' इस वाक्य द्वारा थाकर्तु' असमर्थ बताता है, साथ ही मुनिजी के मिथ्या- किया गया है। भाषण न करने से-ऐसी कथाओं का जैनधर्म के विश्वासो इस भाँति 'युगवीर' जो न केवल श्रद्धामूलक-भावके साथ कोई सामञ्जस्य नही बैठता यह भी कहा है। नायो से अोतप्रोत ज्ञात होते है बल्कि वे महान् विवेकी
परन्तु सत्यान्वेषी युगवीर जी का विश्वास है कि जो भी मिद्ध होते है । वे एक कुशल जौहरी भी थे । सम्भकुछ भी ऐसे चमत्कारपूर्वक कार्य हए है वे सब भक्तियोग बत: जब तक वे किसी कथन की ऊहापोप पूर्वक जौहरी के बल पर हुए है। उन्होने प्रेमी जी के इन उदगारो को के समान परख न कर लेते, उसे स्वीकार नहीं करते थे । प्रश्रद्धामूलक निरूपित करते हुए उनके द्वारा निर्देशित
ऐस बानवे वर्षीय साहित्यसेवी, साहित्यान्वेषी उद्भट "सूर्यशतकस्तोत्र' को स्वयं देखा है तथा जिसका अध्ययन
विद्वान् का दिवगत होना किस साहित्य-प्रेमी के हृदय
को क्षुब्ध न करेगा । युगवीर जी ने अपने जीवन में जो २. श्रमिद्वादिराजसूरि; कल्याणकल्पद्रुमः भारतीय ज्ञान
जैनधर्म की सेवाएं की है वे चिरस्मरणीय रहेंगी, तथा पीठ प्रकाशन, प्रथम सस्करण, १९६७ प्रस्तावना, उनका नाम उनके साहित्य के साथ सदा अमर रहेगा। पृ० १५।
ऐसे जैन रत्न को हार्दिक श्रद्धाजलि समर्पित करते हुए ३. जैन साहित्य और इतिहास : सशोधित साहित्यमाला, हम अाशा करते है कि उनकी मनोभिलाषाओ को समाज ठाकुरद्वार, बम्बई-२, द्वितीय संस्करण, १९५६ ई० पूर्ण कर उनकी प्रात्मा को शान्ति प्रदान करेगी। . पृ० २६५ ।
५. कल्याण कल्पद्रुमः वही; पृ० १३ । ४. वही : पृ० २६५-२६७ ।
६. वही : पृ० १५।