SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्यान्वेषी श्री युगवीर कस्तूर चन्द्र जैन, एम. ए. बी. एड. जब सुबह होगी है तभी यह निश्चय हो जाता है कि प्रापको समर्पित कर दिया था। वे महान् प्रात्माएं थों : संध्या भी होगी और सुबह दिवंगत होकर अस्त हो स्व० युगवीर जी और स्व० प्रेमी जी। जावेगा। परन्तु जैसा कि देखने में आता है, कुछ सुबह ये दोनों ही पात्माएँ महान् विद्वान साहित्यकार और अस्त हो जाने के उपरान्त भी अपनी विशेषताओं के कारण चिन्तनशील थीं। दोनों का जैनधर्म और जैन साहित्य के जन-समूह के लिए सदैव स्मरणीय बना रहता है बहुत कुछ वैसी ही महान आत्माएँ होती है । उनका के सुबह के समान लिए अनूठा योगदान रहा है, जिसके लिए जैन समाज जन्म होता है। और वे एक निश्चित अवधि में अपनी उनका चिर ऋणी रहेगा। दोनो विद्वान् अपने-अपने ढग ज्ञान ज्योति से ससार को प्रकाशित कर अस्त हो जाती के अनूठे विचारक थे। दोनो का अलग-अलग व्यक्तित्व है । परन्तु उस विशिष्ट सुबह के समान अपने जीवन-काल था। प्रेमी जी की जहां जैनधर्म की आस्था में शिथिलता मे की गई समाज एव साहित्यिक सेवाग्रो से ऐसी महान् दिखाई देती है, वहा युगवीर अपार श्रद्धालु । प्रेमी जी ने जहाँ जैनधर्म के दोपो को देखा है, युगवीर जी ने वहाँ मान्यताएँ अजर-अमर होकर जन समूह के लिये सदैव दोप निदेषक उन तथ्यो को न केवल तर्कपूर्ण दृष्टि से स्मरणीय बनी रहती है । बल्कि एक सत्यान्वेषी की दृष्टि से देखा है और अपनी ऐसी स्वर्गीय महान् आत्माओं मे दो जैन महान् विवेकपूर्वक बुद्धि से उचित समाधान निकालने का प्रयत्न आत्माएं इस बीसवी गती मे हुई है, जिन्होने जैनधर्म एव किया है, जिसमे उन्हे पूर्ण मफलता मिली जात होती है। जैन साहित्य के विकास एव सवर्द्धन के लिए ही अपने युगवीर जी सन्तुलित दृष्टि के धनी थे-जिस सन्तभी है। जैसा कि मैने अभी अपने 'जन सन्देश' वाले लेख लिलाट के सम्बन्ध में साहित्यकारो का क लित दृष्टि के सम्बन्ध में साहित्यकारो का कथन है कि मे लिखा है, उनकी अन्तिम भावनाप्रो को हमे शीघ्र ही "सन्तुलित दृष्टि वह नही है जो अतिवादिताप्रो के बीच मूर्त रूप देना चाहिए । अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हो एक मध्यम मार्ग खोजती है, बल्कि वह है जो अतिवादिसका तो 'स्मृति ग्रन्थ' ही निकले। वीर सेवा मन्दिर को तानो का आवेग तरल विचारधारा का शिकार नहीं हो एक शोध केन्द्र का रूप दिया जाय । दिल्ली में ऐसी सस्था जाती और किसी पक्ष के उस मूल सत्य को पकड़ सकती उचित व्यवस्था करने पर बहुत उपयोगी हो सकती है । है जिस पर बहुत बल देने और अन्य पक्षो की उपेक्षा उसके ग्रंथालय को समृद्ध बनाया जाय और लोग अधिकाधिक करने के कारण उक्त प्रतिवादी दृष्टि का प्रभाव बढ़ा है। लाभ उठा सके ऐसी सुव्यवस्था की जाय । अन्त मे मै मान इस सन्तुलित दृष्टि को आगे माहित्यान्वेषी की दृष्टि नीय मुख्तार सा० को सादर श्रद्धाजलि अर्पित करते हुए बताया गया है। इस उक्ति के अनुसार युगवीर जी मेरे प्रति उनका जो वात्सल्य भाव था उसे स्मरण कर गद् साहित्यान्वेषी सिद्ध होते है। उनकी साहित्यान्वेषी दृष्टि गद् होता है। वास्तव में मुख्तार सा० ने अपने जीवन में की एक झॉकी के दर्शन हम उनके द्वारा लिखित एक इतना काम किया वे व्यक्ति ही नही सस्था बन गये । पुण्य प्रस्तावना में होते है, जिसका यहाँ सक्षिप्त उल्लेख कर प्रभाव से मुख्तार सा० ने मृत्यु भी अच्छी पाई और देना आवश्यक समझता हूँ। स्वास्थ भी ठीक रहा, लगन थी ही अतः वे काफी कार्य कर सके। १. विचार और वितर्कः पृ० २५३ ।
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy