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अनेकान्त
मुख्तार सा० का वास्तविक परिचय तो मुझे जबसे से मिलना होता ही रहता था। मुख्तार सा० के वे बड़े उनका 'अनेकान्त' पत्र प्रकाशित होना प्रारम्भ हुआ, तभी भक्त थे। और उन्होने मुख्तार साहब को काफी सहयोग मिला। 'अनेकान्त' अपने ढंग का निराला मासिक पत्र भी दिया। पर आगे चलकर कुछ बातो मे मतभेद हो जाने देखने में पाया। उसमें सम्पादक की सत्य सशोषक वृत्ति से उन दोनों को मै दःखी-सा अनुभव किया। अन्तिम बार विशाल अध्ययन, गम्भीर चिन्तन, जैन साहित्य और शासन जब मुख्तार साहब से मिला तो उन्हें काफी परेशान-सा की सेवा भावना आदि कई बाते एक साथ देखने को पाया। उनके इच्छा के अनुरूप कार्य नहीं हो रहा था, मिली, जिससे में बहुत प्रभावित हुआ। उनके सूचित इससे वे बडे व्यग्र थे और सस्था के प्रति उदासीन भी अलभ्य ग्रन्थो की खोज का काम भी मुझे बहुत आवश्यक नजर आये। मुख्तार सा० बहुत कर्मठ व्यक्ति थे और लगा। मुख्तार साहब ने ऐसे कई ग्रन्थों की सूची 'अने- वीर सेवा मन्दिर की स्थापना द्वारा उन्होने बहुत सुन्दर कान्त' में प्रकाशित की थी जिनका उल्लेख तो मिलता है स्वप्न देखे थे अतः इच्छानुरूप कार्य न होते देख उन्हें पर प्रतियों के अस्तित्व का पता नही चलता। इसी तरह दुःख होना स्वाभाविक भी है। यद्यपि वीर सेवा मन्दिर मुख्तार साहब के कई लेख तो बहुत ही पठनीय लगे। द्वारा अनेकान्त पत्र भी प्रकाशित होता है, दो विद्वान् भी
उनसे मिलने का प्रसग तो दिल्ली में वीर सेवा मदिर वहाँ कार्यरत है। पर मुख्तार सा० के वहाँ रहते हुए जो की स्थापना के समय ही मिला। अपने व्यापारिक केन्द्र पाकपणप्रद बात वहाँ थी वह उनके बाद दिखाई न कलकत्ता व आसाम जाते-पाते समय मै दिल्ली में प्राय. देना स्वाभाविक ही है। अनेकान्त को जो रूप उन्होंने ठहर जाता और 'वीर सेवा मन्दिर' में जाकर मुख्तार दिया था उसमें भी परिवतन हुआ। अ
दिया था उसमे भी परिवर्तन हुा । और अन्य कार्य सा० से मिलने की उत्सुकता रहती। इतने बड़े विद्वान् ।
जितनी तेजी से हो रहे थे, उनकी गति भी मन्द पड़ गई। होने की छाप तो मुझ पर पहले से ही अनेकान्त और फिर भी उनके द्वारा स्थापित सस्था अच्छा कार्य कर रही उनके ग्रन्थों से पड़ चुकी थी, पर वे इतने सरल और प्रेम है। मुख्तार सा० के प्रारम्भ किये हुए लक्षणावली' ग्रन्थ मूति होगे, इसकी कल्पना नही थी। मेरे लेख 'अनेकान्त' को तो अब शीघ्र ही प्रकाशित किया जाना आवश्यक है । मे छपने लगे। इससे वे मेरी शोध प्रवृत्ति और रुचि से
मुख्तार सा. वृद्धावस्था मे भी जिस तरह कार्यरत भलीभाँति परिचित हो चुके थे। अतः प्रथम मिलन में ही थे. दसरे व्यक्ति विरले ही नजर आते है। ६२ वर्ष की उन्होने बहुत हर्ष व्यक्त किया और इससे मुझे भी बड़ा ही उनका स्वाध्याय और लेखन बराबर चलता आनन्द हुअा। फिर तो वीर सेवा मन्दिर उनसे मिलने के
रहा, यह बहुत ही उल्लेखनीय है । अनेक ग्रन्थो पर उन्होंने लिये जाना एक जरूरी कार्य हो गया और प्रायः जब तक गम्भीर विवेचन लिखा । इन वर्षों में उनका झुकाव अध्यावे दिल्ली में रहे, मै उनसे मिलने पहुँचता ही रहा । त्मिक ग्रन्थो की ओर अधिक नजर आया। 'पुरातन वाक्य
नये-नये ग्रन्थो की खोज और उन पर प्रकाश डालने सूची' को तैयार करने और लेखको का विस्तृत परिचय के लिए वे सदा तत्पर रहते थे। एक बार मैं जब वीर देने मे उन्हें बहुत अधिक अध्ययन और श्रम करना पड़ा सेवा मन्दिर गया तो मुझे अजमेर के भट्टारकीय भण्डार है। विविध विषयों पर उन्होने काफी लिखा है। उनकी से लाई हुई कुछ प्रतियां दिखाई। छोटी या बड़ी कोई भी सत्यनिष्ठा, अध्ययनशीलता, अटूट लगन और गम्भीर रचना उन्हें अच्छी लगती तो उसके सम्पादन, अनुवाद चिन्तन विशेष रूप से उल्लेखनीय है। दान को उन्होंने एवं प्रकाशन में वे जुट जाते । प्रारम्भ में वे मुझे कुछ परिग्रह का प्रायश्चित बतलाया। इस तरह के अनेक नये सम्प्रदायनिष्ठ लगे, पर मेरे साथ उनका व्यवहार सच्चे विचार उनके द्वारा हमें मिले। शारीरिक स्वास्थ्य भी स्वधर्मी-वात्सल्य के रूप में ही रहा ।
अच्छा था अतः विचार भी उच्च थे उन्होंने अपनी सम्पत्ति बीच में मैं एक बार मिलने गया तो कलकत्ते के बाबू का बहुत अच्छा सदुपयोग किया। समाज और साहित्य के छोटेलाल जी जैन भी वही थे । कलकत्ता में छोटेलाल जी लिये उनका सर्वस्व दान प्रशंसनीय ही नहीं, अनुकरणीय