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________________ दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग : एक तुलनात्मक अध्ययन १२५ असर्वज्ञता और असर्वदगित्व के प्रसग के विषय में भी यह कहा है कि जिस समय जिन भगवान् अणु प्रादिक यह कहा जाता है कि मत्यादि चार ज्ञान वाला जीव उन को तथा रत्नप्रभादिक को जानते है उस ममय व उन्हे चारो ज्ञानो के द्वारा युगपत् न जानते हुए भी जिस प्रकार देखते नहीं है । इससे मिद्ध होता है कि केवलज्ञान और चतर्जानी माना गया है उसी प्रकार दोनो उपयोगो के दर्शन दोनो उपयोग एक माथ नही होते-क्रम से ही वे एकान्तरित होने पर भी अरहत को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं। स्वीकार करना चाहिए। इसके अतिरिक्त पागम मे जो माकार व अनाकार दोनो उपयोगो को युगपत् न मानने पर यहा एक प्रश्न उपयोगी जीवो का अल्पबहुत्व बतलाया गया है वह यह भी उपस्थित हो सकता है कि जब ज्ञानावरण और पृथक-पृथक् दोनों का ही बतलाया गया है। यदि केवली दर्शनावरण दोनो का ही युगपत् क्षय होता है तब दोनो के दोनो उपयोग युगपत् सम्भव होते तो उभयोपयोगियो उपयोगो के क्रमवर्ती मानने पर उन दोनो में प्रथमत कौन- का भी अलग से अल्पबहुत्व कहा जाना चाहिये था-सो सा उपयोग उत्पन्न होता है--ज्ञान या दर्शन ? यदि ज्ञान वह नहीं कहा गया है। को पहले उत्पन्न हुआ माना जाय तो दर्शनावरण के भी केवल शान-दर्शन का प्रभेद क्षय के होते हुए दर्शन को पहिले उत्पन्न हुअा क्यो न उक्त दोनो उपयोगो के विषय में एक (नीसरा) पक्ष माना जाय? और यदि दर्शन को पहिले माना जाता है यह भी है कि ज्ञानावरण के क्षय को प्राप्त हो जाने पर तो ज्ञान को पहिले क्यो न माना जाय, यह भी प्रश्न बना जिस प्रकार केवली के देशज्ञानों की-मति-श्रुतादि रहता है। इसके समाधान में प्रकृत में यह कहा गया है कि की-सम्भावना नही रहनी उसी प्रकार केवलज्ञानावरण दोनों उपयोगो के एक साथ उत्पन्न होने पर भी यह कोई और केवलदर्शनावरण इन दोनो प्रावरणों के क्षीण हो नियम नहीं है कि उपयोग रूप में भी उन दोनों को साथ जाने पर केवली के केवल दर्शन की भी सम्भावना नहीं हो होना चाहिए-उपयोग कप में नो व क्रम से ही होते रहती-दोनों में एक मात्र केवलज्ञान ही उनके है। उदाहरण स्वरूप मम्यक्त्व, मतिज्ञान, तज्ञान और रहता है। अवधिज्ञान; ये एक माथ उत्पन्न होते है, पर उपयोग उन इम मत का निराकरण करने हग कहा जाता है कि मबमे युगपत् नही होता। ठीक इसी प्रकार केवलीके शक्ति जिस प्रकार केवली के मनि ग्रादि दशज्ञान का प्रभाव की अपेक्षा केवल ज्ञान और केबलदर्शन दोनों के साथ हो जाने पर केवलज्ञान की उत्पत्ति स्वभावत. कही गई उत्पन्न होने पर भी उन दोनो के विषय में उपयोग एक है उसी प्रकार चक्षुदर्शनादि देगदर्शन के अभाव में साथ नही होता-वह तो क्रम से ही होता है। केवलदर्शन भी उनक म्वरूपत. पृथक् होना चाहिए। प्रकृत क्रमवाद के समर्थन में ग्रागम का प्राश्रय लेने फिर भी यदि दंगज्ञान और दगदर्शन दानों के भी हुए यह भी कहा गया है कि प्रप्नि और प्रज्ञापना'पादिम अभाव म यदि एक मात्र कंवलज्ञान ही अभीष्ट है और १ त. मू. १-३०. ममय पाति, ज ममय पा० नो त ममयं जा० ? २ नन्दी . च. (उ. १२) पृ. २६, ध स. १६४७. गो० सागारे से णाणे भात पणागारे से दसणे ३ नन्दी. च.(उ १३-१५) पृ. २६,ध. स १३४०-५० भवति, से तेणट्टण जाव णो त ममय जाणाति केवली ण. भने इम रयणप्पभ पुढवि प्रागारेहि हेतूहि एव जाव ग्रह सत्तम । ........ 'प्रज्ञापना ३०-३१४, उवमाहि दिट्ट तेहि वह सठाह पमाहि पडो. यारेहि ज समय जाणति त समय पासइ, ज समय ५ विशेषा भा. ३७५२, नन्दी च. (उ.१६) पृ. २६, पासइ त समय जाणइ ? गो० नो तिण? मम?। च स १३५१. मे केण?ण भते एव बुच्चति केबली ण इम रय- ६ नन्दी. च. (उ. २ व १७) पृ. २६ व ३०, . स. णप्पभ पुढवि आगारेहि० ज ममय जाणति नो त १३३७३१३५२.
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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