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अनेकान्त
यह श्वेताम्बर जैन साहित्य के वृहद इतिहास का प्रस्तुत पुस्तक पूज्यपाद क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी वर्णी तीसरा भाग है। इसमें प्रागमिक व्याख्या ग्रन्थों का इति के ईसरी (पार्श्व नाथ) मे नवम चातुर्मास के अवसर पर वृत्त दिया गया है । श्वेताम्बरीय प्रागम ग्रन्थो पर दिए गये मधुर प्रवचनों का सकलन है। वर्णी जी क्या थे नियुक्ति, भाष्य,णि और उनके टीका ग्रन्थ उपलब्ध और उनकी वाणी मे क्या रस था यह तो उनके सपर्क में हैं-मावश्यकादि दश नियुक्तियां, ६ भाष्य ग्रन्थ है। पाने वाले सभी जन जानते हैं । उनका एक-एक वाक्य और १२ चुणियां उपलब्ध हैं और इन पर प्राचार्य अंतर्भावना से प्रोत-प्रोत था। उनकी प्रात्मा प्रात्मरस से हरिभद्र, शीलांक, अभयदेव और मलयगिरि प्रादि की छलक रही थी। सब जीवों के प्रति उनकी कल्याण भावना विस्तृत टीकाएं हैं। इस सब विशाल साहित्य का सामूहिक कितनी उच्च थी, यह सब उनके पत्रोंके अवलोकनसे ज्ञात होती परिचय पृथक-पृथक प्रध्यायोंमें कराया गया है साधु और है। भाई कपूरचन्द जी ने वर्णीजी के मधुर भाषणो का सकसाध्वी सम्बन्धी भाषार-विचार का वर्णन विताम्बरीय लन कर उसे प्रकाशित कर वर्णीजी के प्रति अपनी कृतज्ञता साहित्य में विस्तार से मिलता है । साधु और साध्वीय व्यक्त की है। अन्त समय मे वर्णी जी ने कपूरचन्द जी को कल्प प्रकल्प का कथन विस्तार से बतलाया है, यद्यपि जो पत्र लिखा, जिसमे पर सम्बन्ध को त्यागने और अपनी उसमें वस्त्र और पात्र का समर्थन है फिर भी साध्वी, परिणनिको मध्यस्थ रखने को कहा गया है कितना मार्मिक साध्वाचार की प्रत्येक क्रिया के विधि-निषेध पर पर्याप्त है। मुमुक्षुत्रों को मगाकर इसे अवश्य पढना चाहिए। प्रकाश डाला है । डा० मेहता ने इस विशाल साहित्य
४. वीरवाणी स्मारिका-पं० चैन सुखदास जी डा० के परिचय को ५४८ पृष्ठो मे सक्षिप्त एव पाकर्षक शैली मे
कस्तूरचन्द वख्शी ताराचन्द और पं. भवरलाल जी, सुन्दर कग से कराया है। उक्त साहित्य का परिचय प्राप्त
न्याययोर्थ मणिहागे का रास्ता जयपुर। करने के लिये यह भाग बहुत ही उपयोगी है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन का व्यय एक ही परिवार ने वहन किया
प्रस्तुत ग्रन्थ स्व० वख्शी केशरमान जी की स्मृति मे
प्रकाशित किया गया है । जो वख्शी जी सम्बन्धी लेखों है । स्वर्गीय श्रीमुनिलाल जी के सुपुत्रो का यह साहित्यानुराग अनुकरणीय है ग्रन्थ की भाषा परिमाबित और सरल
और उनके सस्मरणो से परिपूर्ण है। समय-समय पर हैं । इसके लिये लेखक महानुभाव धन्यवाद के पात्र है।
लिए गये उनके चित्र भी प्रकट किये गये है जिनसे ज्ञात
होता है कि वख्शी जी बडे कर्मठ व्यक्ति थे। उनकी ३. सुख की मलक-सकलयिता और प्रकाशक कपूर- भावना और सेवा कार्य महान था और वे अपनी धुन पौर चन वरैया एम० ए० लश्कर (ग्वालियर) मूल्य एक रुपया लगन के पक्के थे। उनकी स्मृति में स्मारिका का प्रका पचास पैसा।
शन समुचित ही है।
-परमानन्द शास्त्री
(शेष पृ० ८६ का) ने तो जयघवला टीका भा० १, पृ० १०८) उक्त उसके नाम के अनुरूप जैन परम्परा में न्याय का प्रथम चरण से सम्बद्ध पूरा श्लोक ही उद्धृत किया था ग्रन्थ माना जाता है। किन्तु उसमें अनेक विप्रतिपत्तियां हैं। प्रकलंक देव ने तत्त्वार्थवातिक में आठवें मध्यावमि और वे अभी तक निर्मुल नहीं हुई है । अत: तत्सम्बन्धी सूत्र की व्याख्या में भी एक पद्य उद्धृत किया है * विवाद को न उठाकर इतना ही लिखना पर्याप्त समझते हैं द्वात्रिंशतिका का तीसवां पद्य है । इस तरह सिजनी कि उसकी दिगम्बर परम्परा में कोई मान्यवानगीं मिलती। कुछ द्वाविंशति का भी छठी शताब्दी से ही विनम्बर इस तरह दिगमार परम्परा में पायसेन अपनी परम्परा में मान्य रही हैं। इन्हीं द्वात्रिंशतिकामों में न्याया- प्रख्यात दार्शनिक कृति सन्मति सूत्र पातितके द्वारा बतार भी है और सिद्धसेनकृत माना जाने के कारण उसे विशेष रूप से समावृत हुए हैं।