SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ अनेकान्त जंजतेण य छिण्णं, तं सव्वं फासुयं भणियं ॥" "भिक्खं भमेइ पत्तो' से होता है (पात्र हाथ में लेकर भिक्षा नवनीत में अपनी उत्पत्ति से अंतर्मुहुर्त के बाद ही के लिए भ्रमण करना ।) ग्यारहवीं प्रतिमा के क्षुल्लक सम्मूच्र्छन जीवों का उत्पाद होता है। अतः इस काल- और ऐलक भेद श्री समन्तभद्र स्वामी के समय में नहीं थे। मर्यादा के बाहर का नवनीत ही वहाँ त्याज्य कोटि मे है श्री मुख्तार सा० क्षुल्लक पद को पुराना और ऐलक पद या मुख्तार सा० खुल्लक पद के - इससे पूर्व का नहीं।। को पश्चाद्वर्ती मानते थे जैसा कि उनके गवेषणापूर्ण निबंध 'ऐलक पद-कल्पना' से स्पष्ट है जो अनेकान्त वर्ष १० की श्लोक ८६ में 'अनुपसेव्य' की व्याख्या-स्त्रियों को संयुक्त किरण ११-१२ में प्रकाशित हुआ था। ऐसे अति महीन एवं झीने वस्त्र नहीं पहनना चाहिए जिनसे उनके गुह्य अंग स्पष्ट दिखाई पड़ते हों। इसी इलोक में 'गृहतो मुनिवनमित्त्वा' से सूचित किया श्लोक ऋ० ११६ में द्रव्यपूजा की व्याख्या-वचन है कि मुनिजन तब वनवासी थे, चैत्यवासी नहीं थे। श्री तथा काय को अन्य व्यापारों से हटा कर पूज्य के प्रति पं० नाथूराम प्रेमी ने 'वनवासी पोर चैत्यवासी' शीर्षक प्रणामांजलि तथा स्तुति पाठादि के रूप में एकाग्र करना शोधपूर्ण लेख १९२० ई० मे जनहितैषी में प्रकाशित कर ही द्रव्यपूजा है। जल, चन्दन, अक्षतादि से पूजा न करते इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। हुए भी पूजक माना है। श्री अमितगति प्राचार्य के उपा उक्त दृष्टांतों से प्रकट होता है कि स्व. पं० जुगलसकाचार से भी द्रव्यपूजा के इसी अर्थ का समर्थन होता है। किसान ली और उनकी मौलिक "वचो-विग्रह-संकोचो, द्रव्यपूजा निगद्यते । नाएँ बेजोड़ थी। वाङमयाचार्य की उपाधि से वे विभूषित तत्र मानस सकोचो, भावपूजा पुरातनः ॥" किये गये थे। काश जैन समाज ने कोई विश्वविद्यालय श्लोक ऋ० १४७ मे 'भक्ष्य' की व्याख्या-भक्ष्य का स्थापित किया होता तो निश्चय रूपेण वे डॉक्टरेट की अर्थ भिक्षासमूह है। उत्कृष्ट धावक अनेक घरो से भिक्षा मानद उपाधि से विभूषित किये गये होते। उनके निधन लेकर अन्त के घर या एक स्थान पर बैठकर खाता है। से जो स्थान रिक्त हृया है, उसकी पूर्ति असभव नही तो जिसका समर्थन थी कुदकुदाचार्य के सुत्तपाहुड में पाए हुए दुष्कर अवश्यमेव है । 'एक अपूरणीय क्षति' पन्नालाल साहित्याचार्य विद्वद्वरेण्य प० जुगलकिशोर जी मुख्तार जैन वाड्मय आपने अपनी स्वाजित सम्पत्ति का बहुभाग समर्पित के स्वयं बुद्ध विद्वान् थे। उन्होने अन्तङ्ग की प्रेरणा से कर वीरसेवा मन्दिर की स्थापना की थी तथा उसके जैन शास्त्रों का गहन अध्ययन कर अपने ज्ञान को विक- माध्यम से अनेकान्त पत्र का प्रकाशन कर विद्वानों के लिए सित किया था। धर्म, न्याय, साहित्य इतिहास प्रादि विचारणीय सामग्री प्रस्तुत की है। अब तक पाप समाज सभी विषयों में उनकी अप्रतिहत गति थी। उनके द्वारा को-१. जैनाचार्यों का शासन भेद, २. ग्रन्थ परीक्षा रचित विशाल साहित्य उनके अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग को चार भाग, ३. युगवीर निबन्धावली दो खंड, ४. स्वयंभू सूचित करता है। आपने अपने ज्ञान का सदावर्त विना स्तोत्र, ५. युक्त्यनुशासन, ६. समीचीन धर्मशास्त्र, ७. देवाकिसी स्पृहा के निःस्वार्थ भाव से चालू रक्खा है । गम स्तोत्र, ८. अध्यात्म रहस्य, ६. तत्त्वानुशासन, १०.
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy