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________________ एक अपूरणीय क्षति २५५ पुरातन जैन वाक्य सूची, ११. सत्साधु संस्मरण मंगलपाठ, में लाया है। संस्कृत मे यमकालंकार दुरूहता की दृष्टि से १२. अनित्य पञ्चाशिका, १३. योगसार प्राभृत भाष्य, अपना खास स्थान रखता है शब्दों की तोड़फोड़ को १४. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, स्तुति विद्या, समाधितन्त्र मुख्तार जी एक बड़ा चमत्कार मानते थे। 'लक्ष्मीमहस्तुल्य आदि के प्रस्तावना लेख, १५. मेरी भावना आदि कवि- सती सती सती-' इस पाश्र्वनाथ स्तोत्र का भी आपने ताएं, १६. उपासना तत्त्व तथा अनेक लेख संग्रह प्रदान मुझसे हिन्दी अनुवाद कराया था पर वे उसे अभी प्रकाकर चुके हैं। जैन लक्षणावली प्रापका महत्त्वपूर्ण कार्य है शित नही करा सके । जो कि अभी तक अप्रकाशित पड़ा है । सुसंपादित होकर समन्तभद्राचार्य के प्रति प्रापकी अगाध श्रद्धा थी। वे प्रकाश में आने पर एक बड़ी कमी की पूर्ति हो जायगी कहा करते थे कि मुझे तो लगता है कि मैं उनके संपर्क ऐसी प्राशा है। मे रहा हूँ। परन्तु वे तो अपना कल्याण कर गये और मै बाल्यजीवन से ही आपकी अध्ययन प्रवृत्ति निरन्तर कर्मचक्र में सड़ रहा है। उनका कहना था कि समन्तभद्र वृद्धि को प्राप्त होती रही। तरुण अवस्था में धर्मपत्नी स्वामी ने जैनधर्म की जितनी प्रभावना की है जैन समाज एवं दो कन्यायों का मरण होने पर भी आपने अपने जीवन ने उसके उपलक्ष्य में उनका कुछ भी सम्मान नहीं किया में शून्यता का अनुभव नही किया किन्तु गृहस्थी की है । उनकी अन्तिम समय तक इच्छा रही है कि उनके नाम पर 'समन्तभद्राश्रम' नाम का एक आश्रम खोला चिन्ता से निर्मुक्त हो धर्म और समाज की सेवा में पूरी शक्ति से जुट पड़े। बिना कुछ लिखे आपको चैन नही जावे तथा उसके द्वारा उनके साहित्य का प्रचार हो। पड़ता था । कवि कल्पद्रुम और योगसार प्राभृत भाष्य तो आज के युग में लोग जैनधर्म सुनने के इच्छुक है पर कोई आपने अभी ६१-६२ वर्ष की अवस्था में विस्तर पर बैठे उन्हें सुनाने वाला नही । एक 'समन्तभद्र' पत्र के प्रकाशन बैठे तैयार किये है। कितनी ज्ञानासक्ति है। एक बार की भी उनकी इच्छा थी। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् ने अभी ५ संभवतः सन् १६४४ की बात है मै सहारनपुर की रथ यात्रा से निवृत्त हो सरसावा गया था। शाम को भोजन नवम्बर १९६८ को एटा में अभिनन्दन किया था। अभिके बाद मैं अपने सहपाठी मित्र परमानन्द जी शास्त्री के नन्दन के उत्तर मे आपने आध घंटा तक रुग्णावस्था मे साथ घूमने को निकल गया और बड़ी रात निकल जाने भी जो हृदय के उद्गार प्रकट किये थे वे बड़े ही मार्मिक पर वापिस पाया। आते ही साथ मुख्तार जी बोले कि थे । उनका सार मैने समाचार पत्रों में दिया था। मै आपसे चर्चा करने की प्रतीक्षा में शाम से बैठा है। श्री डा० श्रीचन्द जी सगल एटा एक सेवाभावी व्यक्ति हैं आपने तथा आपके परिवार के प्रत्येक सदस्य ने चर्चा होनी थी रत्नकरण्ड श्रावकाचार के 'मूर्धरुहमुष्टि बड़ी तत्परता से श्री मुख्तार जी की सेवा की है। वासो-श्लोक पर। उस समय वे समीचीन धर्मशास्त्र इस साहित्य महारथी के उठ जाने से जैन समाज को (रत्न करण्ड श्रावकाचार भाष्य) की तैयारी में थे। मुझे __एक अपूरणणीय क्षति उठानी पड़ी है। मैं दिवगत मुख्तार लगा कि एक वृद्ध विद्वान् कितना ज्ञानोपयोग रत है। जी के प्रति नम्र श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हुप्रा डा. आपने मुझसे मरुदेवी स्वप्नावली, स्तुतिविद्या तथा सगल जी व उनके परिवार के प्रति हार्दिक सहानुभूति अध्यात्म तरङ्गिणी का संपादन कराकर उन्हे प्रकाश प्रकट करता है। 'नहि पराग नहि मधुर मधु नहीं विकास का काल । अलि कलो में बंध रह्यो प्रागे कौन हवाल ॥ + + + + निपट प्रबुष समुमत नहीं बुधजन वचन रसाल । कबहुं भेक नहिं जानता अमल कमल-दल बास ।।
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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