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समीचीन धर्मशास्त्र
२५३ परीक्षालय ने इसे पाठ्यक्रमों में स्थान दिया है, प्रत्येक दृष्टव्य है । यथापाठशाला में इसका पठनपाठन होता है, प्रत्येक जिनमन्दिर श्लोक ऋ० १३ मे 'पाषडि' का प्रचलित अर्थ धूर्त, तथा सुशिक्षित गृहस्थ के गृह में यह प्राप्तव्य है। दंभी या कपटी अमान्य करके पाप का खंडन करने वाला
इस ग्रन्थ की अनेक बालबोधटीका हिन्दी में हुई तपस्वी किया है। इसी प्रर्थ में श्री कुदकुदाचार्य प्रणीत है। सोनगढ से भी हिन्दी टीका सहित यह अन्य प्रकाशित समयसार की गाथा ऋ० १०८ तथा अति प्राचीन साहित्य हुआ है।
में प्रयुक्त होना बताया है। 'समीचीन धर्मशास्त्र' का प्राक्कथन डा. वासुदेवशरण
श्लो० ऋ० २८ मे 'मातंगदेहजम्' का अर्थ चांडाल अग्रवाल एवं (Preface) डा० प्रा० ने० उपाध्ये महोदय का काम करने वाला ही नहीं, चाण्डाल के देह से उत्पन्न से लिखा कर गौरववृद्धि की गई है। समर्पण पत्र श्री अथात् जन्म या जाति से चाण्डाल भी किया है। समन्तभद्र स्वामी के नाम है :
श्लोक ऋ० ५८ में 'विलोम' की व्याख्या-अल्प 'स्वदीयं वस्तु भोः स्वामिन् ! तुभ्यमेव समपितम् ।' मूल्य में मिले हुए द्रव्यों को अन्य राज्य मे बहुमूल्य बनाने ग्रन्थ को ७ सात अध्यायों में विभक्त करना मुख्तार
का प्रयत्न । इससे अपने राज्य की जनता उन द्रव्यों के सा० की सूझबूझ है। यह विभाजन बड़े अच्छे ढग से
उचित उपयोग से वचित रह जाती है। इसलिए यह एक किया गया है।
प्रकार का अपहरण है। विलोप में दूसरे प्रकार का अपस्वाप पन्नालाल वानीलामी हरण भी शामिल है जो किसी की सपत्ति को नष्ट करके ग्रन्थ के २१ पद्यो के क्षेपक होने का सन्देह व्यक्त किया :
का प्रस्तुत किया जाता है है। था। मराठी भापा के विद्वान प० नाना रामचन्द्र नाग ने
श्लोक क्र० ५६ मे परदार निवृत्ति' की व्याख्यातो केवल १०० श्लोक मान्य करके ५० कम कर दिये ।
जो स्वदार नहीं, वह परदार है। कुछ लोग परदार का मुख्तार सा० को जैन सिद्धान्त भवन, पारा में ताडपत्रीय अथ पर का स्त्री करते हैं। एकमात्र उसी का त्याग करके ऐसी प्रतियाँ भी प्राप्त हुई है जिनमे १९० श्लोक है परन्तु ।
कन्या तथा वेश्या सेवन की छट रखना सगत प्रतीत नहीं
होता। उन्होने सप्रमाण सिद्ध किया कि वास्तव मे १५० श्लोक होना चाहिए। उन्होंने श्री प्रभाचन्द्राचार्य एव ५० सदा
इलोक ऋ० ७७ मे हिसादान की व्याख्या-हिसा के सूख कासलीवाल के चरणचिन्हो पर चलकर समीचीन ये उपकरण यदि कोई गृहस्थ इसलिए मांगे देता है कि धर्मशास्त्र में १५० श्लोक ही रखे ।।
उसने भी अावश्यकता के समय उनसे वैसे उपकरणो को श्री समन्तभद्राचार्य का विस्तृत परिचय २५ पृष्ठो में मांग कर लिया है और आगे भी उसके लेने की सम्भावना दिया है जिसे मुख्तार सा० ने 'सक्षिप्त परिचय' कहा है। है तो ऐसी हालत में उसका वह देना निरर्थक नही कहा इसका कारण यह है कि उन्होने प्राचार्य प्रवर के सम्बन्ध जा सकता। उसमे भी यह कुछ वाधा नही डालता । जहाँ मे बहुत शोध की थी इसलिए इतना लिखने पर भी लगता इन हिसोपकरणो को देने में कोई प्रयोजन नही है, वही था कि बहुत कम लिखा है।
यह व्रत वाधा डालता है। श्री प्रा० ने० उपाध्ये ने भूमिका में लिखा है कि- श्लोक क्र. ८५ मे वे ही कंदमूल त्याज्य है जो प्रासुक 'हिन्दी व्याख्या केवल मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद नहीं है, अथवा अचित्त नही है। प्रासुक कदमूलादि वे कहे जाते है बल्कि जैन न्याय सम्मत विषयों पर कुछ सदृश प्रकरणों जो सुखे होते है, आग्न्यादिक मे पके या खूब तपे होते है, को श्री समन्तभद्र तथा उनके पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों के ग्रन्थों खटाई तथा लवण से मिले होते है अथवा यत्रादि से छिन्न से लेकर गुण-दोष-विवेचिका विचारणा को भी प्रस्तुत भिन्न किये होते है-जैसा कि निम्न प्राचीन प्रसिद्ध गाथा करती है।'
से प्रकट है :व्याख्या के क्रम में कुछ शब्दों की शोधपूर्ण विवेचना "सुक्कं पक्कं तत्रा, अंविल लवणेण मिस्सिय वव्वं ।