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अनेकान्त
उल्लेख हुआ है :
ज्ञानपीठ ने यह ग्रन्थ प्रकाशित किया होता तो मूल्य ७ रु० (१) प्राचार्य, (२) कवि, (३) वादिराट्, (४) से कम न होता । पंडित, (५) दैवज्ञ (ज्योतिषी), (६) भिषक्, (७) स्व. मुख्तार सा० ने ग्रन्थ का बहुप्रचलित नाम रत्नयांत्रिक, (८) तांत्रिक, (8) आज्ञासिद्ध, (१०) सिद्ध करंड श्रावकाचार न रखकर 'समाचीन धर्मशास्त्र' रखा सारस्वत ।
है । ग्रन्थकर्ता श्री समन्तभद्र ने ग्रन्थारम्भ मे संकल्प किया स्वामी समन्तभद्र की तुलना में निर्भीक एवं प्रभावक अन्य प्राचार्य नही ठहरते। इसी से स्वर्गीय पडित जुगल
देशयामि 'समीचीनं धर्म कर्म निवर्हणं । किशोर उन पर मुग्ध थे।
ससार दुःखतः सत्वान् यो घरत्युत्तमे सुखे ॥२॥ उन्होंने २१ अप्रेल १६२६ को दिल्ली में समन्तभद्रा
मुख्तार सा० ने रत्नकरण्ड नाम ग्रन्थात के निम्न
लिखित श्लोक से फलित किया है :श्रम की स्थापना की थी। आगे चलकर यही वीर सेवा मन्दिर कहलाया। उन्होंने प्राचार्यश्री के अनेक ग्रन्थों पर
येन स्वयं वीत-कलंक-विद्या-दृष्टि-क्रिया-'रत्नकरड'-भावं । भाष्य लिखे और उन्हें सटीक प्रकाशित कराया। उनकी
नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषविष्टपेषु ॥ १४६ अन्तिम इच्छा एक मासिक पत्र और निकालने की थी।
मासिक पार निकाली ग्रन्थकर्ता ने अन्य ग्रन्थो के भी दो-दो नाम गिनाये जिसका नाम भी 'समन्तभद्र' प्रस्तावित किया गया था। है, जैसे-देवागम का अपरनाम प्राप्तमीमांसा। स्तुतिप्रस्तावित मासिक-पत्र तो अब क्या निकलेगा, वीर सेवा विद्या का अपर नाम जिनस्तुतिशतक या जिनशतक, स्वमन्दिर से अनेकान्त ही निकलता रहे तो बड़ी बात है। यभू स्तोत्र का अपरनाम समन्तभद्र स्तोत्र और यह भी
लिखा है कि ये सब प्रायः अपने अपने आदि या अन्त के श्री समन्तभद्र के अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक
पद्यो की दृष्टि मे रखे गये है। लोकप्रियता उनके उपासकाचार को प्राप्त होने का कारण
ग्रन्यकर्ता के अन्यान्य ग्रन्थ कटिन भाषा में है और इस ग्रन्थ की सरल सस्कृत भाषा और अधिकतर अनुष्टुप
विषय भी दुरूह है। अतः कुछ विद्वानों को सन्देह हुआ छन्दों में गृहस्थाचार का विशद् विवेचन है। 'गागर मे
कि देवागम, युक्यनुशासन जैसे ग्रन्थो के कर्ता उद्भट सागर' भर दिया है। विषयवस्तु और शैली दोनों ही
विद्वान प्रसिद्ध आचार्य समन्तभद्र ने यह ग्रन्थ नही लिखा। उत्कृष्ट है।
इसके कर्ता कोई दूसरे ही समन्तभद्र होंगे। इस सन्देह का सर्वप्रथम इसकी संस्कृत टीका श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने
प्रधान कारण है इस ग्रन्थ में उस तर्कपद्धति का प्रभाव लिखी । कन्नड़, मराठी आदि भाषाओं में अनेक टीकाये
जो अन्य ग्रन्थो में प्राप्त है। स्व० मुख्तार सा० ने इसे लिखी गई। हिन्दी में सर्वप्रथम विस्तृत भाष्य पडित
सप्रमाण श्री समन्तभद्राचार्य प्रणीत सिद्ध किया है। इसी सदासुख कासलीवाल (जयपुर निवासी) ने लिखा जो
सम्बन्ध में डा. हीरालाल जैन ने १६४४ ई० मे एक ढढारी गद्य में है। जयपुर के आसपास का क्षेत्र ढुढार
निबन्ध लिखा था-'जैन इतिहास का एक विलुप्त कहलाता है। यह भाष्य वि० सं० १९२० मे लिखा गया।
अध्याय ।' इसका विरतृत और सप्रमाण उत्तर मुख्तार मुख्तार सा० ने श्रावकाचार की विस्तृत व्याख्या २००
सा० ने अनेकान्त द्वारा १६४८ मे दिया था, जिसे विस्तार पृष्ठो में की है और ११६ पृष्ठों में तो केवल प्रस्तावना पर्वक इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में दिया है। प्रस्तावना में ही लिखी, जिसे माघ सुदी ५ सं० २०११ वि० को पूर्ण ६ अन्य समन्तभद्रों का उल्लेख करने के पश्चात् यह किया। जीवन के बहुमुल्य १२ वर्ष इसमे लगाये। यह निष्कर्ष निकाला है कि यह ग्रन्थ उन्ही समन्तभद्र स्वामी ग्रन्थ बीर सेवामन्दिर से अप्रेल १६५५ ई० में प्रकाशित की रचना है जिनकी कृतियाँ प्राप्तमीमासादि है। हुया है। कपड़े की पक्की जिल्द है। प्रचार की दृष्टि से वास्तव में प्राचार्य थी ने यह ग्रन्थ लिखकर बालकों मूल्य लागतमात्र केवल तीन रुपये रखा है। यदि भारतीय एवं बालबुद्धि गृहस्थो पर अत्यन्त अनुग्रह किया है । प्रत्येक