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सोयाचरिउ : एक अध्ययन
श्री परमानन्द शास्त्रो
भारतीय साहित्य में राम, सीता, कृष्ण, पाण्डव, गर्भवती सीताको रामचन्द्र लोकापवाद के भयसे कृतान्तकौरवादि के विषय मे प्रचुर साहित्य लिखा गया है। यदि वक्त्र सेनापति द्वारा भीषण एवं हिसक जन्तुषों से व्याप्त उस साहित्य को साहित्य-सूची से पृथक कर दिया जाय कानन में छुडवा देते है । उस वन की भयानकता सीता तो भारतीय साहित्य निष्प्रभ हो जायगा । केवल राम और की कोमलता और गर्भ-भार की विषमता को देखकर सेनासीता पर विविध भाषामो मे जो विपुल साहित्य रचा गया पति का मानस भी रो देता है। जब सीता को सेनापति है उससे उसकी लोकप्रियता का स्पष्ट भान हो जाता है। से ज्ञात होता है कि रामचन्द्र ने लोकापवाद के भय से सीता के सम्बन्ध मे लिने गये कुछ ग्रन्यो का सक्षिप्त उल्लेख मेग परित्याग किया है, तब वह सेनापति से कहती हैकरते हुए अब तक अप्रकाशित एव अज्ञात ग्रंथ प्राकृत के "हे भाई, तुम स्वामी से मेरा यह सन्देश कह देना कि जिस "सीयाचरिउ' का परिचय प्रस्तुत करना ही इस लेख का प्रकार लोकापवाद के भय से मेरा परित्याग किया है, उसी प्रमुख उद्देश्य है।
तरह अपने धर्म का परित्याग न कर देना। पाठक देखें भारतीय नारियो में सीता का चरित्र अत्यन्त पावन
सीता के इस सद्विवेक को, जिसकी वजह से वह लोकऔर समुज्ज्वल रहा है। वह नारी जीवन के प्रादर्श के
पूजित हुई है। इसी कारण सीता की पावन जीवन-गाथा
पर विविध भाषायो में जो साहित्य रचा गया है वह उसकी साथ धैर्य और विवेक की गरिमाको भी उद्भामित करता
प्रादर्श जीवनी का दिग्दर्शन मात्र है, इसीसे हजारो वर्ष है। इतना ही नहीं, अनेक विषम एव दुःखद प्रसगो पर
व्यतीत हो जाने पर भी सीता की लोकप्रियता कम नहीं हुई। सीता अपने विवेक के सन्तुलन को कायम रखती हुई किसी को अपराधी नहीं ठहराती, प्रत्युत अपने पुराकृत अशुभ जैन साहित्य में सीता के सम्बन्ध में जो साहित्य रचा कर्म को ही दोषी मानती है। उस अवस्था में भी सीता गया है. उसमे से यहा कुछ ग्रन्थो का दिग्दर्शनमात्र कराया का वह विवेक उसे सुदृष्टि प्रदान करता है । इस कारण वह जाता हैममागत प्रापदामों से रंचमात्र भी नहीं घबराती, घेय और
"सीताचरित"-प्राचार्य भवनतुग की कृति है, समभाव से उन्हें सहती है। यही सब घटनाएं उसकी लोक
जिसे उन्होने प्राकृत गाथानो में निबद्ध किया है । कृति में में प्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा की द्योतक है।
उसका रचनाकाल दिया हुआ है। अतः उसके रचनाकाल रावण सीता का अपहरण करके ले जाता है, और का निर्णय करना कठिन है। ग्रन्थका ग्रादि-अन्त भाग निम्न उसे देव-रमण उद्यान मे रखता है, उसे प्रसन्न करने के प्रकार है-- लियेविविध उपाय किये जाते है। बंभव का नजारा दिखाया ग्रादि-जस्स पय-पउम नहचद जहजलजालिखालियमलोह। जाता है, समझाया, डराया-धमकाया भी जाता है । किन्तु ति जगंपि सुईजायं तं मुणिसुव्वयजिणं नमिउ । इन सब का उसके अन्तर्मानस पर कोई प्रभाव अकित नही
अन्त-सीलगुणसवण संभयर परमाणंदकारणारय । हुमा । उसकी आत्मनिर्भयता, महान् शक्तिशाली शत्रु के
चरिय सिरि भुवणतुंग पयसाहणं होउ ॥४२॥ यहा अक्षुण्ण बनी रही। यही उसके सतीत्व की गरिमा का प्रतीक है। इससे पाठक सीता के सतीत्व की महत्ता का २. “सीताचरित"-महाकाव्य सर्ग ४, गाथा ६५, अंदाज लगा सकते है।
EE, १५३, और २०६ है । कर्ता का नाम ज्ञात नहीं हुआ।