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________________ १२८ अनेकान्त यह कृति म० १३३६ के द्वितीय कार्तिक में लिम्बे गए जो समजणहार तिसहि सिख दीजिये। गुच्छक में मौजूद है, जो पाटन के भण्डार मे मुरक्षित है। जाणत होइ प्रयाणु तिसहि क्या कीजिये। ३. "रामलक्षण सोयाचरित"-नामकी है, यह कृति शुक-नासिक मृग-दृग पिक-वइनी, भी अज्ञात कर्ताको है इसमे २०८ गाथागो मे उक्त चरित जानुक वचन लवइ सुखि रइनी। दिया हुपा है प्रथ का प्रादि-अन्त भाग निम्न प्रकार है अपना पिउ पय अमृत जानि, पादि-भणियं सोयाचरियं पुश्वभवविवागस्यगं किंचि । प्रवर पुरिस रवि-दुग्ध-समानी ॥ मह रामक्लखणाण त लवमित्त पकित्तमि ॥ पिय चितवन चितु रहइ मनन्दा, मन्त-रामो वि केवली विहरिऊण महिमडलमि सयलमि। पिय गुन सरत बढ़त जसकन्दा । पडिबोहियभध्वजणो पत्तो सिवसपय विउल॥२०८ प्रोतम प्रेम रहइ मन पूरी, हिन्दी भाषा मे सीता के चरित्र का अच्छा चित्रण तिनि बालिम संग नाहीं दूरी। जिनि पर पुरिष तियारति मानी हमा है । कुछ कृतियो का उल्लेख नीचे किया जाता है लखे न सो प्रादि विकानो? ॥ कविवर भगवतीदास अग्रवाल ने सवत् १६८७ में करत कुशील बढ़त बहु पापू, चंत्र शुक्ला चतुर्थी-चद्रवार के भरणी नक्षत्र मे 'सिहरदि' नरकि जाइ तिउ हइ संतापू । नगर में "लघुसीता सतु" को रचना की है। रचना सुन्दर जिउ मधु बिन्दु तन सुख लहिये, और भावपूर्ण है। ग्रथ मे बारहमासो के मदोदरी-सीता शोल बिना दुरगति दुख सहिये । प्रश्नोत्तर के रूप में कविने रावण और मदोदरी की चित्त कुशल न हुइ पर पिय रसबेली, वृत्तिका चित्रण करते हुए सीता के सतीत्व का कथन किया जिउ सिसु मरइ उरग-सिउ खेली। है। वह बड़ा ही सुन्दर और मनमोहक है। अतः ग्रथ सर्वसाधारण के लिये बहुत उपयोगी और शिक्षाप्रद है। दोहा-सुख चाहइ ते बावरी पर पति संग रति मानि । पाठको की जानकारी के लिए प्राषाढ मास का प्रश्नोत्तर जिउ कपि शीत विथा मरइ तापत गुंजा प्रानि ॥ नीचे दिया जाता है सोरठ-तष्णा तो न बुझाइ जल जब खारी पीजिये । तब बोलइ मन्दोदरी रानो, रति अषाढ़ घन घट घहरानी। मिरगु मरइ पपि धाइ जल घोखद थलि रेतकह। पीय गये ते फिर घर पावा, पामरनर नित मन्दिर छावा। पर पिय सिउ करि नेह सुजनमु गमावना । लवहि पपीहे दादुर मोरा, हियरा उमग घरत नहि मोरा । बीपगि अरइ पतंग सु पेखि सुहावना । बावर उमहि रहे चौपासा, तियपिय विनु लिहि उसन उसासा पर रमणी रस रंग कवणु नरु सुह लहा। नन्हीं बन्द भरत सरलावा, पावस नभ मागम बरसावा । जब कब पूरी हानि सहित सिंह प्रहि रहा। रामिनिदमकत निशि प्रन्धियारी, विरहनि कामवान उरिमारी दूसरी रचना "सीताचरित" है जो हिन्दी का एक भगवहि भोगु सुनहि सिख मोरी, जानत काहे भई मति बोरी महत्वपूर्ण काव्य है जिसे कवि रायचन्द्र ने स. १७१३ मदन रसायन हा जगसारु, सजमु नेम कथन विवहार।। में बनाकर समाप्त किया है। रचना पधबद्ध भौर मध्यम दोहा-जब लग हंस शरीरमहि, तब लग कोजह भोग। दर्जे की है। परन्तु रचना में गतिशीलता (प्रवाह ) है। राज तजहि भिक्षा भमहि इउ भूला सबु लोग। पद्यों की संख्या अढाई हजार से ऊपर है । ग्रंथ में सीता सोरठा-सुख विलसहिं परवीन, दुख देखहि ते बाबरे। के जीवन पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। जिउ जल छांडे मीन तड़फि मरहि थलि रेत का। तीसरी रचना "सीताचउपई" है, जो ३२७ पद्यों की यह जग जीवन लाहुन मन तरसाइए। लघुकाय कृति है । इसके कर्ता खरतरगच्छ शाखाके समयतिय पिय सम संबोगि परम सुहु पाइए । ध्वज हैं।
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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