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सोयाचरित : एक अध्ययन
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चौथी रचना "सीताप्रबन्ध" है, जो ३४६ पद्यों में ही हिरणी जमीन पर घडाम से गिरी और गिरते हो रचा गया है, रचनाकाल स. १६२८ है ।
उसके पेटसे तड़फड़ाता हुआ एक बच्चा निकला । वजकर्ण पांचवी रचना "सीताविरहलेख" है जिममे ८१ पद्यों इस भ्रूणहत्या के महापाप से प्रत्यन्त व्यथित हमा' और द्वारा कवि अमरचद ने सीता के विरह पर अच्छा प्रकाश विचारने लगा कि इस महापाप से कैसे बच सकता है। डाला है। रचना सवत् १६७१ के द्वितीय प्राषाढ के दिन
ऐसा विचार कर वह इधर-उधर घूम रहा था कि उसकी पूर्ण हुई है।
सहसा दृष्टि एक शिला पर बैठे हुए ध्यानस्थ मुनि पर पड़ी। छठी रचना "सीतारामचीपई" है, जिसे कवि समय
बचकर्ण ने उन्हें नमस्कार करके पूछा-'भगवन् ! पाप सुन्दर ने स० १६७३ में अपने जन्म स्थान साचौर में बना इस जगलमें क्या करते है ?' मुनि ने कहा...'मैं प्रात्महित कर समाप्त की है।
करता है।' बजकर्ण ने कहा-'भख, प्यास, सर्दी, गर्मी सातवी रचना "मीता चउपई" है, जिसे तपागच्छीय की परीषह सहते हुए वन में अकेले कैसे प्रात्महित होता कवि चेतनविजय ने संवत् १८५१ के वैशाख सुदी १३ को है ?' तब मुनि ने उसे गृहस्थ और मुनिधर्म का स्वरूप बंगाल के अजीमगंज में रचा है।
समझाया, जिससे राजा को प्रतिबोध हमा। उसने मद्य. इनके अतिरिक्त और भी अनेक रचनाएँ शास्त्रभडागे
मासादि के त्याग के साथ सम्यग्दर्शन और श्रावकधर्म को में विद्यमान होगी जिन पर फिर कभी प्रकाश डाला
ग्रहण किया पोर यह प्रतिज्ञा की कि जिनेन्द्रदेव और जावेगा।
जिनगुरु को छोड़कर अन्य किसी को नमस्कार नहीं सीयाचरिउ' प्राकृत भाषा का गद्य-पद्यमय एक चम्
करूगा। काव्य है । भाषा मरल और मुहावरेदार है। अनुमानत: प्रस्तुत काव्य मे सीता का चरित्र पूर्व परम्परानुसार इसमें ३००० गाथाएँ और कुछ गद्य भाग है। अथ की ही चित्रित किया है । यद्यपि कवि ने उसे विस्तृत रूप मे अनेक प्रतियाँ श्वेताम्बरीय शास्त्रभडागे मे उपलब्ध होती। लिखने का प्रयत्न किया है किन्तु यहा इस छोटे से परिचय है । अथ अभी तक अप्रकाशित है। इसकी प्रति श्री अगर. लेख में उसका संक्षिप्त सार ही दिया जाता है । ग्रन्थ मे चदजी नाहटा के सौजन्य से कलकत्ता के नाहर भण्डार से
काव्यगत वैशिष्ट्य का अभाव, खटकता है। भाषा सरल प्राप्त हुई है जिनकी मैने कापी की है और बाद में दूसरी है। कही-कही कुछ सुभाषित एव नीतिपरक पद्य उपलब्ध प्रति से मिलान भी किया है । इतने बड़े ग्रथ में कही सधि
होते है जिससे पाठक ऊबता नहीं। जहाँ सती सीता सर्ग या प्रकरण वगैरह नही है, इसलिए कथानकका सम्बन्ध
सुशीला और मिष्ठभाषिणी है वहां कप्टसहप्णि, पतिभक्ता, भी लम्बा और दुरूह हो गया है । पाठक को उसके जानने
विवेकनी, कर्तव्यपरायणा आज्ञाकारिणी और स्वदोष में बडी कठिनाई होती है। प्रथ में कितनी ही गाथाएँ
प्रैक्षिणी भी है। विमलसूरी के 'पउमचरिउ' से समानता रखती है । कितने
वह मिथला के गजा जनक और विदेहा की पुत्री है। ही विषयोमे समानता दृष्टिगोचर होती है, कही कुछ पाट
वह युगलरूप मे उत्पन्न हुई थी, किन्तु भाई के अपहृत हो भेद मिलता है। प्रथ में काव्य का विशप आडम्बरु नही १. ज तस्य पिया अहिय पारद्धी धम्मबुद्धि-रहियस्स । है. नगर, देश, नदी, ग्राम, बन आदि का सामान्य वर्णन वच्चइ तेण अरणे ममाइ धायस्थ अणुदियह ।। या नामोल्लेख मात्र किया है । युद्ध का वर्णन भी पूर्वग्रन्थ- अन्नामि दिणे पहया हरिणी वाणेण तेण गम्भवई। परम्परानुसार ही है । हां, कही किमी कथानक में विशेषता पडियो य तीए गम्भो दरीय कुच्छीअ सहसत्ति । लाने का उपक्रम अवश्य किया है। उदाहरणस्वरूप वज्रकर्ण- दठ्ठण तडफडत मयसावं (सो) विसायमावण्णो । कथानक में कहा गया है कि वह धर्म रहित और शिकारी चिंतइ महापाव मए कयं भूणधाएण ।। था। एक दिन वह वन में शिकार खेलने गया और बहाँ
-सीयाचरिउ, का०पृ० २८ उसने गर्भवती हिरणी को बाण से मार दिया। बाण लगते २. सीयाचरिउ प० २६