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अनेकान्त
फागन सुदि ग्यारसि निस माहि,
पूरन पुन्याश्रव कियो, पूरब ले मनुवार । कियो समापत उरटुल साहि ॥५॥ जिन प्राग्यायु लखे बचन सेव, तो अन्य निरषार ॥६॥ दोहा-विसपतवार सुहावनी, हरष करन कूपाय ॥ छंद मात्र प्रक्षर कर, सोधि लेहबुषिवान ॥ ता दिन प्रेम पूरन भयो, सो सुषको वरनाय ॥५६॥ जो लेषक चुक्यो कह विष्ट पड़े को थान ॥६१॥ मानूं तेरह पथ कू, फल में पहुत जाय ।।
शुद्ध करे ते परमाद कछ कीजे नाहि समान ।। सुगम पथ प्राग भलो, पायो अति सुणदाय ॥५७॥ ताते बुद्धि ते बीनही लिपि देषि शुष ठानि ॥२॥ देव धर्म गुरु वदितै. सब हो मंगल पाय ।।
इति श्री कथाकोप भाषा चौपाई छंद दोहा टेकचद सुख ते ग्रन्थ पूरन भयो, जै जै जै जिनराय ॥५॥ कृत संपूर्णः ।। समाप्त ॥ मिती भादों वदी ॥१संवत् ग्रन्थ सख्या इम जानि, भव्य सहस्र चतुर्दश मानि ।। १९५६ शाके १९२१ ॥श्री। ॥श्री। श्री। इह कथा कोष अपरि पचीस से जानिये, यह संस्था उर प्रानि ॥५६॥ पंचायती बडे मदिर जी के है | भा पत्र ३५२ ।।* '
महावीर वाणी . नित पीजी धीधारी, जिनवानि सुधासम जानके ॥टेक।। वीर मुखाविद ते प्रगटी जन्म-जरा-गद धारी। गौतमादि गुरु उरघट व्यापी, परम सुरुचि करतारी ॥१ सलिल समान कलिलमल गंजन, बुधमनरंजनहारी। भजन विभ्रम धलि प्रभंजन, मिथ्या जलद निवारी ॥२ कल्यानक तरु उपवन धरिनी, तरनी भव जल तारी । बंध विदारन पैनी छैनी, मुक्ति नसैनी सारी ॥३ स्व-पर-स्वरूप प्रकाशन को यह, भानुकला अविकारी। मनि-मन-कुमदिनि-मोदन शशिभा, शमसख सुमन सुवारी ॥४ जाको सेवत वेवत निजपद, नसत अविद्या सारी। तीन लोक पति पूजत जाको, जान त्रिजग हितकारी ॥५ कोटि जीभ सों महिमा जाकी, कहि न सके पविधारी।
दौल अल्पमति केम कहै यह, अधम उधारनहारी ।।६ जिनवाणी को अमृत के समान जानकर विद्वानों को उसका निरन्तर पान (श्रवण) करना चाहिए। भगवान् महावीर के मुखारविन्द मे प्रगट हुई वह जिनवाणो जन्म-जग (बुढापा) रूपी रोग का विनाश करने वाली है। गौतमादि मुनीन्द्र के हृदयम्प घट में व्याप्त होने से वह अतिशय कचि को उ पन्न करने वाली है। जल के समान पागरूपी मल को नाम करने वाली होने से वृधजनो के मन को अनुरजायमान करने वाली है। वह जिनवाणी अज्ञानरूपी धल उड़ाने के लिए वायु के समान और मिथ्यात्वरूप मेघों की विनाशक है। पच कल्यानकरूपी वृक्षो के लिए उपवन घारिणी है --उद्यानभूमि है। भवसमुद्र से तारने के लिए नौका है। कर्मम्पी बध की विनायकः पनी छनी है । और मुक्ति पी महल की नसनी-सीढी है। स्व-पर के स्वरूप को प्रकाशित करने के लिए उत्तम मूर्य किरण है । और मुनियों की मनरूपी कुमुदिनी को प्रफुल्लित करने के लिए चन्द्रमा की चाँदनी है। समता-मुम्वरूपी पुप्पो की अच्छी वाटिका है। जो उसकी मेवा (मनन ) करना है वह निज पद का अनुभव करता है और उसका सब अजान नष्ट हो जाता है। तीनों लोको की हितकारी जानकर उसकी तीन भवन के राजा इन्द्र, धरणेन्द्र व चक्रवर्ती पूजा करते है। वनधारी इन्द्र करोड जिहानो से भी उमकी महिमा को नहीं गा सकता है। कविवर दौलताम जी कहते है कि मैं अल्प बुद्धि उसकी महिमा कैसे कह सकता हूं, वह तो अधमजनो का उद्धार करने वाली है।