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ऐसे थे हमारे बाबू जी
विजयकुमार चौधरी एम. ए. साहित्याचार्य वीर वाङमय की शोध और खोज में अपने सुदीर्घ जिन्होंने अचानक ही मुझे इस महान पुरुष के दर्शन पाने जीवन को प्रतिपल तन्मय रखने वाले भारती-पुत्र बाबू में सहायता की । रुग्णावस्था मे मै छाणी (उदयपुर) अपने जुगलकिशोर मुख्तार सा० को अब जब हम 'स्वर्गीय' सेवा स्थान पर जा रहा था दिल्ली स्टेशन पर एक यात्री शब्द से अंकित पाते है, तब ऐसे लगता है मानों कराल धोखा देकर मेरा सामान चुरा ले गया तीन दिन तक मैं काल ने वीर-भक्तों पर कहर ढा दिया हो। यद्यपि बात कि कर्तव्य विमूढ दिल्ली जकशन पर ही पड़ा रहा चौथे ऐसी नहीं है, हम सबके सौभाग्य से उसने काफी सुनी दिन उपाय सोचा श्रीमान पंडित दरबारीलाल जी 'कोठिया और मनुष्य के मरण धर्मा स्वभाव होते हुए भी 'जीवेमः न्यायाचार्य से मिलना चाहिए। श्री कोठिया जी कितने शरदः शतम्' की भावना को अनुकूल उसने पूज्य मुख्तार दयालु है यहां यह बताने की आवश्यकता नहीं है जो उनके सा० के दर्शन हमें शताब्दी के अन्तिम दशक तक कराये सम्पर्क में आता है वही बता सकता है। श्री पंडित जी की पर ऐसे सरस्वती पुत्रों की प्रायु तो 'ब्रह्म वर्षो' के अनुसार कृपा से दिल्ली में तीसरे दिन मैं इस महान पुरुष के सामने गिनी जानी चाहिए। अगर आगे आने वाली पीढिया बेटा था। गौरवर्ण दुहरी देह का वृद्धावस्था से झुरियों पळेगी कि प्राचार्य जूगलकिशोर कौन थे तो इसका उत्तर पटा कान्तिमय चेदा जिसके केवल यही दिया जा सकेगा कि जिनवाणी की सेवा में सफेद चादर, गेरुए वस्त्र का एक कुर्ता, शायद वरत काज अपने जीवन को तिल-तिल जलाकर नि:शेप बनाने वाला से बंधी हई जेब में पडी घड़ी। जिसके सामने डेस्क पर एक महान तपस्वी था जिसके हृदय मे करुणा की अजस्र लिखते थे कागज पर नीनों योर ले हे धारा बहती थी। जिसके पढने और मनन करने से जीवन जिनमें तन्मयता से प्राखे गडी हुई है। यह है हमारे पूज्य का आत्म परिकार होता है, भावनाएँ मानवीयता से बाबू जी का कुछ परिचय। और मै उसी दिन वीर सेवा प्रोत-प्रोत हो जाती है ऐसी मेरी भावना का एक भी 'पद' मन्दिर का एक कनिष्ठ सैनिक बन गया। पडित कोठिया जब तक लोगों की जबान पर रहेगा तब तक स्वर्गीय जी ने मेरी स्थिति बतायी नही कि उसके पहले ही 'बाबू मुख्तार सा० की कीर्ति-चन्द्रिका इस समाज की धरती पर जी' का हृदय पिघल पड़ा ऐसा प्रेम था विद्वानों से छिटकती रहेगी वह क्षण कितना पवित्र होगा जिस क्षण उन्हे । में 'बाब जी' ने मेरी-भावना का 'उद्गार' किया होगा। दूसरे दिन रात्रि के ढाई-तीन बजे होंगे कि बाबू जी बौद्ध साहित्य में उसके अग रूप मे एक 'उदार' साहित्य के कमरे में से प्रार्थना की ध्वनि पाने लगी-'मुझे है जिसमे महात्मा बुद्ध के मंगल क्षणों के हपमय उद्गार स्वामी उस बल की दरकार'। यह पद शायद बाबू जी के संकलित है। यह उनके हृदय हिमालय से निकली हुई मित्र स्वगीय नाथराम जी प्रेमी का बनाया हुप्रा था। ऐसी गंगा की धारा है जिसमें नहाकर हम सब अपने जीवन इसमें आपत्तियों के पहाड़ से टकरा कर भी अपने नैतिक कलंको को सदा काल धोने में समर्थ हो जाते है। जीवन को आगे बढ़ने की कामना है । मुख्तार सा० अपने ___ वह मेरे जीवन के सौभाग्य क्षण थे जब वीर सेवा ध्येय के प्रति कितने अडिग थे ऐसी ही प्रार्थनामों का यह मन्दिर में सेवा के बहाने इस 'साहित्य-तपस्वी' के नजदीकी फल है। से दर्शन करने का अवसर मिला करता था। सन् उन्नीस एक दिन वह था जब श्री कोठिया जी में और धी सो उनचास के दिसम्बर महीने की अन्तिम तारीखे थी बा जी में किसी सिद्धान्त पर से सम्मवतः वह प्राप्त