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अनेकान्त
परीक्षा के समर्पण पर से था कुछ वाद-विवाद हो गया सा० केवल साहित्यकार का हृदय नहीं, कवि का भावुक
और श्री कोठिया जी ने त्याग-पत्र दे दिया उस दिन मुझे हृदय नहीं, शोधक प्राचार्यत्व का हृदय लिए रहते थे । ख्याल है श्री बा जी की आँखे छलछलाती हुई थीं।
स्वर्गीय बा. जी एक महान् भाष्यकार थे । ग्रन्थ की कितना गहरा वह प्रेम था! श्रीमान् पं० परमानन्द जी
जटिलता को खोलकर पाटकों में सरसता के साथ विषय शास्त्री तो प्राज भी वीर सेवा मन्दिर में हैं, उन्हें जिस
का हृदयंगम कराना भाष्यकार का उद्देश्य होता हैं यही निष्ठा से 'बा. जी' की सेवा में रत पाते थे हम लोगों के लिए वह अनुकरणीय था।
बात हमारे स्वर्गीय बाबू जी में थी। वे ग्रन्थ की व्याख्या
उसके प्रत्येक शब्द के साधारण और विशेष अर्थ के साथ जैन इतिहास विशेषकर जैन ग्रन्थकार प्राचार्यों के
निर्देशक-चिन्हों के द्वारा स्पष्ट करते थे। हिन्दी के कारक विषय मे अपने गहरे अध्ययन और चिन्तन से स्वर्गीय
चिन्हों के विषय में बा. जी संस्कृत व्याकरणानुसार समस्त मुख्तार सा० ने जो शोध और खोज पूर्ण तथ्य निश्चित
शैली को ही ठीक मानते थे वे शब्द के साथ ही कारक किये है वे इतने प्रामाणिक और निर्विवाद हैं कि बिना
बोधक को जोड़ते थे। पर सर्ग मानकर उसको अलग से किसी ननु न च सबने स्वीकार किये है । 'जिन खोजा तिन
नहीं लिखते थे। प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत शैली से वे पाइयां गहरे पानी पैठ ।' स्वर्गीय मुख्तार सा० इस कहा.
अधिक प्रभावित थे । स्वर्गीय बा० जी के पास जिनको वत को पूर्णतः चरितार्थ करते थे।
भी कुछ दिनों बैठकर कुछ लिखने का अवसर मिला है वे स्वर्गीय बाबू जी के पास जो भी रहा है वह बा०
अच्छी तरह जानते है कि बा० जी साहित्यकार की अपेक्षा जी की व्यवस्था से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता ।
आचार्य अधिक थे। हिसाब-किताब के सम्बन्ध मे पूज्य बा. जी बड़े व्यवहारी थे अगर किसी के पास दो पैसे भी बाकी है तो चार माह
__ वीर-वाणी और उनके महान व्याख्याता महान् प्राचार्य बाद भी मांगने में सकोच नहीं करते थे और किसी का
वर्य पुन्य नाम स्वामी समन्तभद्राचार्य के प्रति बा. जी एक पैसा भी देना बाकी हैं तो उसे भी वे चार माह
माह की इतनी प्रगाढ़ श्रद्धा थी कि उनका नाम स्मरण होते बाद अपने पाप बुलाकर दे देते थे एक बार मेरे हिसाब
ही वे विभोर हो जाते । मानो समन्तभद्र स्वामी के प्रादेश के दो पैसे बा. जी ने ठीक चार माह बाद ऐसे ही
को लेकर उनके अधुरे कार्य को पूरा करने के लिए ही दिये थे।
घरा-घाम पर अवतीर्ण हुए हो । उनके जीवनका ध्येय मानो ___खोज-शोध की गुत्थियों एवं दार्शनिक गहराइयों मे
वीर वाङ्मय की सेवा के अतिरिक्त और कुछ नही है । डूबे हुए भी बा० जी को हम लोगों ने जोर के ठहाके
उसके प्रकार और प्रसार में उन्हें अपरिसीम आनन्द मिलता लगाते हुए हास्य रस मे विभोर देखा है। उनमे दर्शन
था महासन्त तुलसीदास जीने रामचरित मानस लिखने शास्त्र की गम्भीर चिन्तन-शीलता, साहित्यकारों की
" का जो उद्देश्य-स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा सहज भाव-प्रवणता, मुक्त विनोद प्रियता एक साथ थी।
लिखा है। हमारे पूज्य बा० जी ने भी स्वान्तः सुखाय 'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि' ऐसे थे हमारे ही वीर वाङ्मय की सेवा में अपने जीवन-स्नेह को तिलस्वर्गीय बा. जी । अपने सिद्धान्त पर वे इतने अडिग और तिल जलाया है। यही कारण है कि महावीर की वाणी
और अचल रहते थे कि ऐसा मालूम पड़ने लगता था कि के महान् उद्धारक समन्तभद्र स्वामी के प्रति उनकी तन्मबा० जी मे भावुकता बिल्कुल नही है। अपने प्रगाढ़ यता पूर्ण अनन्य श्रद्धा थी। यद्यपि शास्त्रीय प्राधार से ऐसा स्नेही स्वर्गीय बा० छोटेलाल जी कलकत्ता वालों के साथ कहने में विवशता है कि हमारे पूज्य बा० जी समन्तभद्र भी वे वैसी ही दृढ़ता वर्तते पर उस दृढता मे भी अन्तः स्वामी के ही अवतार थे, कारण समन्तभद्र स्वामी तो जयस्विनी की भांति मृदुल भावुकता का स्रोत बा० जी स्वर्ग में लम्बी आयु लेकर स्वर्ग सुखों का अनुभव कर रहे के हृदय तक में बहा करता। वास्तव में स्वर्गीय मुख्तार हैं पर उनका सन्देश बा० जी ने अवश्य सुना था।