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पिण्डशक्षिके अन्तर्गत उद्दिष्ट माहार पर विचार
१४ मालारोहण मालिकारोहण उद्भिन्न आच्छेद्य ८ अपरिणत मिश्र दायक अपरिणत १५ माच्छेद्य प्राच्छेद्य आच्छेद्य अनिसृष्ट लिप्त अपक्व लिप्त लिप्त १६ अनिसृष्ट अनिसृष्ट पारोह अध्यवपूरक १० त्यक्त लिप्त विमिश्र छदित (प्रणिसिट्ठ)
(छड्डिय) १६ उत्पादन दोष
४ इतर दोष मूलाचार प्रा. सा. अन. घ. (पि. नि.४०३
मूला. प्रा. सा. अन. घ. पि नि. (६.२६-२७) (८,३५-३६) (५-१६) व ४०८-६)
(६,५७-५८) (८,५४-५७) (५, ३७.३८) १ धात्री धात्री घात्री धात्री
१ सयोजना संयोजन प्रगार संयोजना २ दूत
(६२६-४१) ३ निमित्त भिषग्वृत्ति निमित्त निमित्त
२ प्रमाण प्रमाण घूम प्रमाण ६४२ ४ प्राजीव निमित्त वनीपक
प्राजीव
३ अंगार अंगार सयोजना अंगार ६५६-५७ ५ वनीपक इच्छाविभाषण आजीव वनीपक
४ चम धूम प्रमाण धूम ६५८-५९ ६ चिकित्सा पूर्वस्तुति क्रोध चिकित्सा ७ क्रोधी पश्चात्स्तुति मान क्रोध
अषःकर्म ८ मानी क्रोध
माया मान
सोलह उद्गम दोषो मे पहिला अघःकर्म और दूसरा ६ मायी मान लोभ माया प्रौद्देशिक है। १० लोभी माया प्राग्नुति लोभ
पृथिवीकायिकादि छह जीवनिकायो की विराधना ११ पूर्वस्तुति लोभ अनुनुति पूर्वसस्तव और उपद्रवण-जीवों को उपद्रवित (पीडित) करना'१२ पश्चात्स्तुति वश्यकर्म वैद्यक पश्चात्सस्तव आदिसे जो सिद्ध हो, वह चाहे स्वय किया गया हो या १३ विद्या स्वगुणस्तवन विद्या विद्या
१ मूलाचार मे इन उद्गम दोषोका नामनिर्देश गा. ६, १४ मत्र विद्या मत्र
३-४ द्वारा किया गया है। तदनुसार ये दोष १७ १५ चूर्णयोग मत्र चूर्ण चूर्णयोग
होते है । पर अन्त में 'उग्गमदोसा दु सोलसिमे' कह१६ मूलकर्म चूर्णोपजीवन वश
कर उनकी संख्या १६ ही निर्दिष्ट की गई है।
इसकी वृत्ति में प्रा. वसुनन्दी ने प्रकृत अधःकर्म १० प्रशनदोष
को पिण्डशुद्धि के बाह्य महादोष कहा है। यथामूलाचार प्रा. सा. अन. घ. पिंडनियुक्ति
गृहस्थाश्रितं पचमूनासमेत तावन् सामान्यभूतमष्टवि(६-४३) (८-४५) (५.२८) (५१४-१५,५२०)
घा पिण्डशुद्धि बाह्य [विपिण्डशुद्धिबाह्य] महा१ शकित शकित शकित शकित
दोषरूपमधःकर्म कथ्यते । २ म्रक्षित म्रक्षित पिहित प्रक्षिप्त
पं. आशाधर जी इस यःकर्म को स्पष्टय छया
(मक्खिय) लीस दोषो से बाह्य मानते है । यथा-- ३ निक्षिप्त निक्षिप्त म्रक्षित निक्षिप्त षट्चत्वारिंशता दोषः पिण्डोऽध:कर्मणा मलैः । ४ पिहित पिहित निक्षिप्त पिहित
द्विसप्तश्चोभितोऽविघ्न योज्यस्त्याज्यस्तथार्थतः ।। ५ संव्यवहरण उज्झित छोटित सहृत
अन. घ. ५.१ ६ दायक व्यवहार अपरिणत दायक २ जीवस्य उपद्रवण प्रोद्दावण णाम । धवला पु. १३, ७ उन्मिश्र दातृ साधारण उन्मिश्र
पृ. ४६.
मत्र
मूलकर्म