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अनेकान्त
पूति
बलि
बलि
प्राकृतिक आहार का प्रमाण पुरुष का ३२ ग्रास और १आतंक-रुग्णावस्था, २ मुनिधर्म का विघातक महिला का २८ ग्रास है। एक ग्रास का प्रमाण एक देव-मनुष्यादिकृत उपद्रव, ३ ब्रह्मचर्यका सरक्षण, ४ प्राणिहजार (१०००) चावल मात्र है।
दया-बहुधात का परिहार, ५ तप के निमित्त और ६ ६ बंगार दोष-मूछित होकर-पासक्तिपूर्वक- शरीरपरिहार-समाधिमरण; इन कारणों से धर्म के आहार करने से अगार दोष होता है।
संरक्षणार्थ भोजन का परित्याग करना आवश्यक है। ७ घूम दोष-भोजन को प्रतिकूल जानकर निन्दा उपर्युक्त उद्गमादि दोषो को विविध ग्रन्थो के आधार का भाव रखते हुए पाहार करने पर धूम दोष उत्पन्न से निम्न तालिकाओं द्वारा ज्ञात कीजिएहोता है। ८ कारण-आहार ग्रहण के छह कारण है, जिनके
१६ उद्गम दोष प्राश्रय से धर्म का आचरण हो सकता है। तथा छह ही मलाचार आचारसार अन. घ. पिण्डनियुक्ति कारण ऐसे है जिनके आश्रय से आहार ग्रहण करने पर
(६,३-४) (८,१६-२०) (५,५-६) (६२-६३) धर्म से विमुख रह सकता है, अतः वे परित्याज्य है। ये १ प्रोद्देशिक उद्दिष्ट उद्दिष्ट आधाकर्म दोनो प्रकारके कारण इस प्रकार है
२ अध्यधि अध्यवधि साधिक प्रौद्देशिक १ क्षुधा की वेदना, २ वैयावृत्त्य, ३ आवश्यक ३ पूति
पूति पूतिकर्म क्रियानो का परिपालन, ४ सयमका परिपालन, ५ प्राणों ४ मिश्र मिश्र मिश्र मिश्रजात की स्थिति और ६ धर्मचिन्ता; इन कारणो से भोजन ५ स्थापित स्थापित प्राभूतक स्थापना लेना धर्म का साधक होने से आवश्यक है।
बलि प्राभृतिका
७ प्रावर्तित प्राभृत न्यस्त प्रादुष्करण १ बत्तीस किर कवला पाहारो कुक्खिपूरणो होइ।
(पाहुडिह) पुरुसस्स महिलियाए अट्ठावीस हवे कवला ॥
८ प्रादुष्कार प्रावि.कृत प्रादुष्कृत क्रीत भ. आ. २११, मूला. ५-१५३; पि. नि. ६४२.
६ क्रीत क्रीत क्रीत
अपमित्य ('कुक्खिपूरणो होइ' के स्थान में यहाँ 'कुच्छिपूरओ
(पामिच्चे) भणियो' पाठ है)।
१० प्रामृष्य प्रामुष्य प्रामित्य परिवर्तित २ ग्रासोऽश्रावि सहस्रतदुलमितो........। भ. प्रा.
(पामिच्छ) मूलाराधना टीका २११ मे उद्धत ।
११ परिवर्तक परिवृत परिवर्तित अभिहृत ३ त होदि सयगाल ज पाहारेदि मुच्छिदो संतो।
१२ अभिघट अभिहत निषिद्ध उद्भिन्न मूला. ६-५८ पू.; पि. नि. ६५५ पू. (अभिहड) ४ तं पुण होदि सघूम ज पाहारेदि दिदो।
१३ उद्भिन्न उद्भिन्न अभिहत मालापहृत मूला. ६-५८ उ.पि. नि. ६५५ उ. (णिदिदो-निदंतो) छहि कारणेहि असण पाहारंतो वि पायरदि धम्म । वेयण-वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । छाह चेव कारणेहि दु णिज्जुहवंतो वि आचरदि । तह पाणवत्तियाए छट्ठपुण धमचिताए॥पि.नि. ६६२
मूला. ६.५६. (आगे की गा. ६६३-६४) द्वारा इन छह कारणों छहि कारणेहिं साधू आहारितो वि पायरइ धम्म । का यहाँ स्पष्टीकरण भी किया गया है।) हि चेव कारणेहि णिज्जूहितोऽवि पायरइ ॥ ७ आदके उवसग्गे तिर-[तिति- क्खणे बभचेरगुत्तीयो।
पि. नि. ६६१. पाणिदया-तवहेऊ सरीरपरिहार वोच्छेदो ॥ मूला.६-६१ वेयण-वेज्जावच्चे किरियाठाणे य संजमझाए ।
आर्यके उवसग्गे तितिक्खया बभचेरगुत्तीसु । तघ पाण-धम्मचिंता कुज्जा एदेहि प्राहारं ।। मूला.६-६० पाणिदया तवहेउ सरीरवोच्छेयणट्ठाए । पि. नि. ६६६