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पिण्डशुद्धिके अन्तर्गत उद्दिष्ट आहार पर विचार
बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
श्री १०८ पूज्य प्रा० शिवसागर जी व उनके संघस्थ के अन्तर्गत हैं । ये उत्पादन दोष भी १६ ही कहे गये हैं। मुनि श्रुतसागर जी महाराज की अनुमति से श्री ब्र० प्यारे- ३ प्रशन दोष-ये भोजनविषयक दोष परोसने वाले लाल जी बड़जात्या के द्वारा पत्रों में प्रकाशित 'उद्दिष्ट आदि से सबन्ध रखते है । ये संख्या मे दस है।
आहार पर विचार' शीर्षक में ज्ञातव्य विषय उद्दिष्ट ४ संयोजना दोष-शीत-उष्ण या सचित्त-अचित्त अन्नमाहार को अपेक्षित देखकर उसके विषय मे पागमानुसार पान का सयोग करना, यह संयोजना दोष कहलाता है। कुछ लिखना अभीष्ट प्रतीत हुअा। इस विषय का विशेष ५ प्रमाण दोष-अत्यधिक प्राहार के करने पर विवरण मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार में उपलब्ध प्रमाण दोष उत्पन्न होता है। होता है। वहां भोजनशुद्धि के विषय मे यह गाथा कही
अत्यधिक पाहार का स्पष्टीकरण करते हुए प.
प्राशाघर जी ने कहा है कि उदर के चार भागो में से दो उग्गम उप्पादण एसणं च सजोजण पमाणं च ।
भागों को व्यंजन (दाल-शाक आदि) के साथ भोजन से इगाल धूम कारण प्रविहा पिंडसुद्धी दु' ॥२॥
तथा एक भाग को पानी आदि से पूर्ण करके शेष एक भाग उद्गम दोष (१६), उत्पादन दोष (१६), अशन को वायुसंचरण आदि के लिये रिक्त रखना चाहिए । इसका दोष (१०), संयोजना दोष, प्रमाण दोष, अंगार दोष, घूम अतिक्रमण करने से अतिक्रम नाम का दोष होता है।' दोष और कारण; इस प्रकार पिण्डशुद्धि आठ प्रकारकी।
२ यरभिप्रायात-पात्रगौराहारादिस्ते उद्गमोत्पादनकही गई है। १ उद्गम दोष-दाता जिन मार्गविरोधी प्रवृत्तियों
दोषाः आहारार्थानुष्ठानविशेषाः । मूला. वसु. वृत्ति ६-२ से भोजन को उत्पन्न करता है उन प्रवृत्तियों को उद्गम
दातुः प्रयोगा यत्यर्थे भक्तादी षोडशोद्गमाः ।
पौशिकाद्या धान्याद्या: षोडशोत्पादना यतेः ।। दोष के नाम से कहा जाता है। ये उद्गम दोष १६ कहे
भक्ताद्युद्गच्छत्यपध्ययर्यरुत्पाद्यते च ते । गये हैं। २ उत्पादन दोष-पात्रस्वरूप साधु जिन मार्गविरोधी
दातृ-यत्योः क्रियाभेदा उद्गमोत्पादनाः क्रमात् ॥
अन. घ. ५-२ व ४. अभिप्रायो से भोजन को प्राप्त करता है वे उत्पादन दाषा ३ अश्यते भज्यते येभ्यः पारिवेषिकेभ्यस्तेषामशुद्धयो१ पिंडे उग्गम उप्पायणेसणा[सं] जोयणा पमाण च।
ऽशनदोषाः । मूला. वृत्ति ६-२. इंगाल धूम कारण अट्ठविहा पिडनिज्जुत्ती ॥ पि. नि.१ "
र ४ सजोयणा य दोसो जो संजोएदि भत्त-पाण च । भगवती-आराधनामे इन दोषों का उपयोग पाहार
मूला. ६-५७ पू.; अन. घ. ५-३७.
५ अदिमत्तो पाहारो पमाणदोसो हवदि एसो । के साथ शय्या-वसतिका-और उपधि के विषय मे
मला. ६-५७ उ. भी किया गया है । यथा
प्रद्धमसणस्स सविजणस्स उदरस्स तदियमुदयेण । उगम-उप्पादण-एसणाविसुद्धाए अकिरियाए दु।
वाऊसचरण? चउत्थमवसेसये भिक्खू ॥ मूला. ६-७२ वसदि प्रसंसत्ताए णिप्पाहुडियाए सेज्जाए ॥२३०॥
सव्यञ्जनाशनेन द्वौ पानेनैकमशमुदरस्य । उग्गम-उप्पायण-एसणाहि पिंडमुवधि सेज्ज च ।
भूत्वाऽभूतस्तुरीयो मात्रा तदतिक्रमः प्रमाणमलः ।। सोधितस्स य मुणिणो विसुज्झए एसणासमिदी॥११६७
मन. प.५-३८.