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________________ १५८ अनेकान्त दूसरे से कराया गया हो, अधःकर्म कहलाता है। माशाधरजी का उदाहरण यहाँ है ही, पर वह इस प्रकार इस अधःकर्म से परिणत-अपने लिए किया गया है, से है-जिस प्रकार मछलियों को लक्ष्य कर जलमें प्रक्षिप्त इस प्रकार मानने वाला'-साधु प्रासुक द्रव्य के ग्रहण मादक चूर्ण प्रादि से मादक हए जलके सम्बन्ध से मछलियाँ करने पर भी बन्धक कहा गया है और इसके विपरीत ही विहल होती है, मैंढक नही; इसी प्रकार पर के लिए जो शद्ध-अधःकर्म से विशुद्ध-ग्राहार को खोज रहा है (अपने लिए नही) किए गए पाहार के ग्रहण में साधु वह प्रधःकर्म के होने पर भी शुद्ध माना गया है। विशा-निर्दोष-रखता है। अभिप्राय यह है कि यहां पं. पाशाघर जी ने इसे कुछ विकसित कर यह कह जो उक्त दष्टान्त पात्रके लिए दिया गया है उनका उपयोग दिया है कि प्रध.कर्म करने वाला गृहस्थ ही पापका भागी मनगारधर्मामृत मे दाता के लिए किया गया है। होता है, साधु नही। जैसे-जलाशय मे मछलियो को पिण्डनियुक्ति मे इस अधःकर्म या पाषाकर्म की निमूछित करनेवाले चूर्ण आदि के डालने पर मछलियाँ ही कृष्टता को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जो साधु विह्वल होती है, मेढक नहीं। प्राधाकर्म दोष से दूषित भोजन को खाता है उसके इस मूलाचार मे आगे यह स्पष्टतापूर्वक निर्देश कर दिया दोष की शुद्धि प्रतिक्रमणसे सम्भव नहीं है। वह बोडगया है कि प्रासुक होने पर भी यदि वह अपने लिए किया मुण्डित-मस्तक-इस प्रकार लोक मे परिभ्रमण करता है गया है तो वह अशुद्ध--अग्राह्य-ही है। उपर्युक्त प.. जिस प्रकार कि लुचित-विलुचित- सर्वथा बालों से रहित १ त अोद्दावण-विद्दावण - परिदावण-प्रारंभकदणिप्फण्ण कबूतर इधर-उघर फिरता है। तात्पर्य यह कि अधःकर्मत सव्व प्राधाकम्म णाम । ष.ख. ५,४,२२ (पु. १३, भोजीकी लोच आदि अन्य क्रियाये सब निरर्थक है। पृ. ४६). छज्जीवणिकायाणं विराहणोद्दावणादिणिप्पण्णं । प्रौद्देशिक दोष आघाकम्म णेय सय-परकदमादसंपण्णं ।।मूला. ६-५. दूसरा उद्गम दोष प्रौद्देशिक है । उसका स्वरूप इस पोरालसरीराणं उद्दवण तिवायण च जस्सट्रा। प्रकार हैमणमाहिता कीरइ पाहाकम्म तयं बेति ।। पि नि. ६७ देवद-पासंडत्थं किविणटुं चावि जंतु उद्दिसियं । आघानम् प्राधा, 'उपसर्गादातः' इत्यङ प्रत्ययः- कदमण्ण समुद्देसं चदुम्विहं वा समासेण ॥ मूला. ६-६. सानिमित्त चेतसा प्रणिधानम्, यथा अमुकस्य साधो: अर्थात् नागयक्षादि देवताओं के लिए, पाखण्डियोंकारणेन मया भक्तादि पचनीयमिति, आधया कर्म जैनदर्शन बाह्य वेषधारी साधुओं के लिए और कृपण पाकादिक्रिया प्राधाकर्म, तद्योगाद् भक्ताद्यप्याधाकर्म । ....... यद्वा प्राधाय-साधु चेतसि प्रणिधाय (दीन) जनों के लिए जो भोजन तैयार किया गया है वह पोहोशिक-उद्देश से निर्मित–कहलाता है । अथवा, वह यत् क्रियते भक्तादि तदाघाकर्म । पिं. नि. मलय. संक्षेप से चार प्रकार का हैवृत्ति ६२.. २ प्रासुके द्रव्ये सति यद्यधःकर्मपरिणतो भवति साघुः ५ पगदा असो जम्हा तम्हादो दव्वदो ति तं दव्व । -यद्यात्मार्थ कृत मन्यते गौरवेण-तदासी बन्धको पासुगमिदि सिद्ध वि य अप्पटुकदं असुद्ध तु ।। भणित:-कर्म बध्नाति । मूला. वृत्ति ६-६८. जह मच्छयाण पयदे मदणुदये मच्छया हि मज्जति । ३ प्राधाकम्मपरिणदो पासुगदव्वे वि बघनो भणियो। ण हि मंडूगा एव परमट्ठकदे जदि विशुद्धो॥ सूद्ध गर्वसमाणो प्राधाकम्मे वि सो सुद्धो।। मूला. ६-६८ मूला. ६, ६६.६७. ४ योक्ताधःकर्मिको दुष्येन्नात्र भोक्ता विपर्ययात् । ६ पाहाकम्मं भुजइ न पडिक्कमए य तस्स ठाणस्स । मत्स्या हि मत्स्यमदने जले माद्यन्ति न प्लवाः ।। एमेव अडइ बोडो लुक्क-विलुक्को जह कवोडो । मन.ध. ५-६८. पि. नि. २१७.
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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