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पिण्डशुद्धिके अन्तर्गत उद्दिष्ट माहार पर विचार
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जावदियं उद्द सो पासंडो ति य हवे समुद्देसो। आदि को मिलाकर भोजन बनाया जाता है वह प्रोष समणो ति य मादेसो णिग्गंयो त्ति य हवे समावेसो ॥ प्रौद्देशिक कहलाता है और अपने स्वामित्व को हटाकर
मूला. ६-७. भिक्षा देनेके लिए जो कुछ मात्रामें भोजन सामग्रीको पृथक उपर्युक्त प्रौद्देशिक भोजन चार प्रकारका है- कर दिया जाता है वह विभाग प्रौद्देशिक माना जाता है। उद्देश, समुद्देश, प्रादेश और समादेश । १. जो भी कोई
कभी दुष्काल आदि के पड़ने पर उसमें जीवित बचा आवेगे उन सभी के लिए भोजन दूंगा, इस उद्देश से निर्मित भोजन को उद्देश प्रौद्दे शिक कहा जाता है।
रहा गृहस्थ विचार करता है कि मैं इस भीषण दुभिक्षमें २. जो भी पाखण्डी पावेंगे उन सबको भोजन दूंगा, इस
जीवित बच गया हूँ, अतएव प्रतिदिन कुछ भिक्षा दूंगा। प्रकार के उद्देश से जो भोजन बनाया जाता है उसे समु
कारण कि पूर्व में दिया है सो अब भोगनेमें आ रहा है,
अब इस समय यदि कुछ पुण्य कार्य न किया जाय तो पर. देश प्रौद्देशिक कहते है । ३. आजीवक और तापस प्रादि
लोकमें फल कहाँसे प्राप्त हो सकता है। अत: भिक्षा जितने भी श्रमण-वेषधारी साधु-भोजन के लिए
दानादि पुण्य कार्य करना उचित है। ऐसा विचार होने आवेगे उन सभी को आहार दूगा, इस प्रकार श्रमणो के
पर गृहिणी विना किसी प्रकारके विभागके जितना भोजन उद्देश से निर्मित भोजन का नाम आदेश प्रौद्देशिक है।
प्रतिदिन बनाया जाता है उसमे पाखण्डियों या गृहस्थों ४. जो भी निर्ग्रन्थ साधु आवेगे उन सबके लिए आहार
को भिक्षा दानार्थ कुछ और भी चावल आदिको डालकर दूगा, इस प्रकार जैन साघुओं को लक्ष्य कर बनाया गया
भोजन बनाती है । यह ओघ प्रौद्देशिक है। भोजन समादेश प्रौद्देशिक कहलाता है। यह चारो प्रकारका भोजन उद्देश से निर्मित होने के कारण प्रौद्देशिक
यहा यह शका उद्भावित की गई है कि साधु तो
छद्मस्थ है-केवल ज्ञानी तो नही है; तब वैसी अवस्था दोष से दूषित होता है, अतः शुद्धि का विघातक होने से
मे वह यह किस प्रकार जान सकता है कि अमुक भोजन साधु के लिए वह अग्राह्य होता है । पिण्डनियुक्ति प्ररूपित प्रौद्देशिक
उपर्युक्त उद्देशपूर्वक बनाया गया है और अमुक बिना पिण्डनियुक्ति यह श्वेताम्बर सम्प्रदायका मान्य किसी प्रकारके उद्देशके बनाया गया है ? ग्रन्थ है । यद्यपि दिगम्बर साधु और श्वेताम्बर साधुग्रोकी इसके उत्तर में कहा गया है कि साधु यदि उपयुक्त है गोचरीमे भेद है, फिर भी जैसा कि ऊपरकी तालिकामों से
रका तालिकामा से --सावधान है-तो वह गृहस्थकी शब्दादि चेष्टामोसे उसे स्पष्ट है, दोनों सम्प्रदायगत इन दोषों में बहुत कुछ समा- ज्ञात कर सकता है। जैसे-यदि भिक्षाके सकल्पसे नियनता भी है। इसीलिए तुलनात्मक विचार की दृष्टि से मित बनाये जाने वाले भोजनमे कुछ अधिक चावल आदि यहाँ पिण्डनियुक्ति में जिस प्रकार इस दोषकी प्ररूपणा को का प्रक्षेप किया गया है तो वहुधा गृहस्थकी चेष्टा इस गई है उसे भी दे देना उपयोगी प्रतीत होता है।
प्रकार हुआ करती है-यदि गृह पर भिक्षार्थ कोई साधु यहाँ प्रौद्द शिकके दो भेद निर्दिष्ट किये गये है- पहुँचता है तो गृहपति गृहिणीसे भिक्षा देनेके लिए कहता प्रोष पौशिक और विभाग प्रौद्देशिक । पोषका अर्थ है। तब वह कहती है कि पाच भिक्षाये प्रतिदिन दी सामान्य होता है, अतः सामान्यसे-स्व प्रौर पर के जाती है सो वे इतर साधूनों को दी जा चुकी हैं । अथवा विभाग से रहित-जो प्रतिदिन बनाये जाने वाले निय- कभी-कभी गृहिणी इन भिक्षामोंकी गणनाके लिए भित्ति मित भोजनमें भिक्षा देने के विचारसे कुछ और चावल आदि पर रेखाये बनाती जाती है, अथवा पहिली व दूसरी १ उद्देसिय समुद्दे सियं च पाएसियं च समाएसं ।
पादि गिनती हुई भिक्षा देती है। कभी-कभी प्रमुख एवं कडे य कम्मे एक्केक्कि चउक्कमो भेषो ।
गृहिणी बहू आदिसे यह कहती हुई देखी जाती है कि इस जावंतियमुद्देसं पासडीणं भवे समुद्दे सं।
पात्रमें से भिक्षा देना-इसमे से नही देना। तथा साधु समणाणं पाएसं निम्गंथाणं समाएसं ।।
जब किसी विवक्षित घर पर पहुँचता है तो कोई स्त्री पि.नि. २२६-२३० किसी दूसरीसे कहती है कि भिक्षादानार्थ इतनी भोज्य