SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७४ अनकान्त मन्दिर में वे वहाँ के शास्त्र भण्डार को देखने के लिये मुख्तार सा० से अन्तिम भेट जनवरी १९६५ मे हुई प्रति दिन ४-५ घण्टे जम कर बैठते थे। वह गमियों का जब मै नेशनल म्यूजियम से कुछ ग्रन्थ लेने दिल्ली गया समय था । शास्त्र भण्डार वाले तिवारे मे घूप भी प्राता था। उस समय भी मुख्तार सा० अपने साहित्यिक मिशन थी लेकिन वे इसकी परवाह किये विना लगातार बैठकर में पूर्ण दत्तचित्त थे और विभिन्न जैनाचार्यों के समय शास्त्रो को देखते रहते । साथ ही में उनकी प्रावश्यक निर्धारण में लगे हुए थे । उनमें वही प्रात्मीयता एव अपने प्रणालियों आदि भी नोट करते जाते थे। वे दूसरा के काम के प्रति लगन तथा उत्साह था। यद्यपि वीर सेवा कार्य में कम विश्वास करते थे इसलिए जब तक वे स्वय मन्दिर से उनका निकोप : मन्दिर से उनका विशेष सम्बन्ध था लेकिन इससे उनकी किसी ग्रन्थ को नही देख लेते तब तक किसी भी बात की साहित्यिक सेवा मे जरा भी अन्तर नही पाया था। स्वीकार नहीं करते थे। ___वास्तव मे मुख्तार मा० साहित्य की जितनी भी सेवा इसके बाद तो उनसे दिल्ली में कितनी ही बार भेट हुई। जब भी दिल्ली जाता तब वीर सेवा मन्दिर में ही कर सके, वह इतिहास के स्वर्ण पृष्टो मे सदा प्रकित रहेगी । अनेकान्त जैसे खोज पूर्ण पत्र का उन्होंने वर्षों तक ठहरता और वही उनके दर्शन हो जाते । सन् १९५६ में दिल्ली में प्रायोजित जैन सेमिनार के अवसर पर तथा सम्पादन किया। और उसके माध्यम रो जैन इतिहास को इसी तरह के अन्य अवसरों पर उन्हे पास से देखने का नई दिशा प्रदान की। इतिहास निर्माण के अतिरिक्त वे अवसर मिला। उनकी कार्य करने की पद्धति को देखा। पक्के समाजसेवी एव सुधारक थे । शिथलाचार का उन्होंने वे सारा कार्य स्वय ही करते थे लेकिन प्रात.काल से लेकर अपने जीवन मे कभी पोषण नहीं किया तथा अपने लेखों रात्रि तक ८५ वर्ष की अवस्था तक भी वे सतत साहित्य एव पुस्तको के द्वारा देश एव समाज में नव चेतना जाग्रत की आपकी एक 'मेरी भावना' ही उन्हे सैकड़ो वर्षों तक सेवा में लगे रहते। जीवित रखने में पर्याप्त है। सन् १९५६ मे उन्होने अजमेर के भट्टारकजी के भडार को देखा और उस भण्डार में से कितनी ही नवीन कृतियो आज सारा समाज आदरणीय मुख्तार सा० की की खोज की। ५० परमानन्द जी भी उनके साथ थे। सेवाओं के प्रति कृतज्ञ है लेकिन हमे इस बात का सदा इन दोनों विद्वानो की प्रगाढ़ जोड़ी ने साहित्यिक क्षेत्र में ही पश्चाताप रहेगा कि हम उनका कोई शोभा सम्मान न कितने ही महत्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन किया है। जब वे कर सके, जिसमें उन्हें अपनी सेवाओं का समाज द्वारा अजमेर से वापिस लौटे तो दो दिन के लिए जयपुर भी मूल्याकन का आभास होता। वीर सेवा मन्दिर एव अनेठहरे और शाम को ही मेरे घर को अपने चरणों से पावन कान्त पत्र उनकी सेवाओं की उज्ज्वल तस्वीर है । मुख्तार कर दिया । मेरे लिये ऐसे साहित्यिक महापुरुष का प्रातिथ्य सा० के निधन के पश्चात् ही हमारा यह कर्तव्य हो सौभाग्य का विषय था । प्रातःकालीन भोजन के अतिरिक्त जाता है कि उनकी स्मृति में किसी ऐसी ग्रन्थमाला का शाम को वे केवल दूध लेते अथवा साधारण-सा फलाहार शुभारम्भ करे जिससे जैनाचार्यों की साहित्य सेवा का करते थे। घोती, कमीज एव टोपी लगाये तथा बेत हाथ प्रत्येक भारतीय को सही मूल्यांकन मिल सके । यही उनके मे लिये रहते थे और कभी-कभी ऐसा मालम होता था प्रति हमारी सच्ची श्रद्धाजलि होगी। और उनका सच्चा कि मानो ज्ञान की साक्षात्मूति ही अपनी पावन रज से स्मारक होगा। अनेकान्त पत्र में उनका संस्थापक के रूप नगर को पवित्र करने आई हो । में नाम रहना चाहिए। -: :
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy