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________________ प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार २७३ प्रकाश डालते हों। पत्र का कागज अच्छी क्वालिटी का नफे नुकसान की मालिक विद्वत्परिषद् होगी-मेरा उससे सफेद हो, ३२ पोण्ड से कम किस्म का न हो और उसमें कोई संबंध नहीं रहेगा।' छपाई की शुद्धता एवं सफाई का पूरा ध्यान रखा जाये, ऐसे पत्र की समाज में भाज कितनी बड़ी आवश्यजिससे पत्र आकर्षक तथा रुचिकर हो । पत्र को समाज के कता है । इसे समाज के सच्चे हिषी भले प्रकार समझ झगड़े-टटो से अलग रखा जाये, ऐसा कोई लेख न छापा सकते हैं और उसमें यथाशक्ति अपना-अपना सहयोग देने जाये जो व्यर्थ का क्लेशकारक, वैमनस्योत्पादक, कषाय- के लिए तत्पर हो सकते है। दो चार सक्रिय-सेवाभावी वर्धक अथवा व्यक्तिगत प्राक्षेपपरक हो और वातावरण प्रेरकों की जरूरत है, जिन्हें शीघ्र ही स्वकर्तव्य समझको दूषित तथा प्रशान्त बनाता हो : पत्र को जो भी पढ़े कर आगे आना चाहिए । फिर पत्र को घाटे का भी उसे शान्ति मिले और शुद्ध ज्ञान का लाभ हो, ऐसी दष्टि कभी मुंह नही देखना पड़ेगा और वह समाज का एक बराबर रखी जानी चाहिए । ऐसे पत्र को शीघ्र निकालने प्रादर्श पत्र बन कर रहेगा।" के लिए मै विद्वत्परिषद् को दस हजार देना चाहता हूँ। मुख्तार सा० नही रहे । उनके बाद उनके अनुशसकों इस रकम को तीन वर्ष के घाटे के रूप में समझा जावे, तथा प्रात्मीय जनो का यह पुनीत दायित्व हो जाता है जो किसी तरह भी कम नहीं है। कम से कम तीन वर्ष कि उनके द्वारा प्रारम्भ किये गये तथा परिकल्पित शोध उक्त पत्र को जरूर निकाला जायेगा ऐसा दृढ़ सकल्प अनुशीलन कार्य को आगे बढ़ाए । यही उनके प्रति सच्ची करके ही कार्य को हाथ में लेना चाहिए, शेष पत्र के श्रद्धांजलि होगी। -: : आचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार डा० कस्तूरचन्द काप्तलोवाल एम. ए., पो-एच. डो. अादरणीय मुख्तार सा० ने जैन साहित्य की ७० से भी कैलाशचन्द्र श्री शास्त्री प्रादि कुछ और विद्वानों के नाम अधिक वर्षों तक सेवा करके समाज की तीन पीढियों को भी सुनाई देते थे और समाज को इन विद्वानों की विद्वत्ता इस ओर कार्य करने के लिये सदैव प्रोत्साहित किया। एवं कार्य पर पूरा भरोसा था। सचमच इन सब विद्वाना मुख्तार सा० के इस प्रोत्साहन के फलस्वरूप प्राज हमे के अनवरत परिश्रम एवं महत्वपूर्ण उपलब्धिया के कारण जन साहित्य पर कार्य करने वाले विद्वान दिखलाई देते ही गत १० वर्षों मे जैन साहित्य पर कुछ काय हा है। उन्होने खोज करने की प्रणाली को विद्वानो के समक्ष सका है। उपस्थित किया मोर प्रमाणो के प्राधार पर ही किसी भी मुख्तार सा० से मेरा साक्षात्कार सब प्रथम गभर परम्परा को स्वीकार करने का प्राग्रह किया। मैने साहि- में हमा। उस समय वे स्व० बाबू छोटलाल जाक त्यिक क्षेत्र में उस समय प्रवेश किया था जब मस्तार सा. यहां पाये थे। मेरी दो पुस्तक उस समय पर ७० वर्ष की आयु को पार कर चुके थे। उस समय जैन भण्डार को ग्रन्थ सूची" एवं "प्रशस्ति संग्रह" निकल चुक साहित्य के क्षेत्र में सर्वश्री नाथ राम जी प्रेमी, मरुनार सा० थी। पुस्तकों पर जो उनकी सम्मति मिला या १९ डा० उपाध्ये एवं डा०हीरालाल जी जैन के नाम विशेष लिये मार्गदर्शन स्वरूप थी। यद्यपि उस समय वे ७० वर्ष क्रम में लिये जाते थे। डा० नेमिचन्द जी शास्त्री, डा० से भी अधिक थे लेकिन उनका कार्य करने का उत्साह ज्यातिप्रसाद जी, पं०परमानन्द जी शास्त्री, एवं पडित युवकों जैसा था। मझे याद है कि लश्कर के दि० जन
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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