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________________ २७२ अनेकान्त डॉ. साहब ने प्राचार्य समन्तभद्र के साहित्य को किन्तु यथास्थान अनुक्रम से दिये जाये और धातु के 'धा देश और विदेशों के विद्वानों तथा जनसामान्य के समक्ष अकट में दिया जाये, फिर लकारो के रूप भी शब्दानुक्रम लाने के हेतु पहली आवश्यकता तो यह व्यक्त की है कि से दिये जाये । उस साहित्य के प्रामाणिक संस्करण उपलब्ध हों, दूसरी (६) यौगिक शब्दों का पृथक्-पृथक् निर्देश हो। आवश्यकता यह है कि मेरे द्वारा हिन्दी अनुवाद और (७) क्त्वा,, तु के रूप धातुप्रो में दिया जाये । विस्तृत प्रस्तावना आदि के साथ प्रकाशित समन्तभद्र स्थल के अनुरूप इसमे शब्दो के हिन्दी अर्थ की का एक ऐसा सस्करण प्रकाशित हो जिसमें सब योजना करनी अवशिष्ट है, जिसके हो जाने पर कोश ग्रन्थ मुलानूगामी हिन्दी अनुवाद के साथ हो। इसी तरह परा हो सकेगा। सब ग्रंथों का रोमनलिपि में रूपान्तर तथा मूलानुगामी इममें सदेह नही कि सबसे पहले पांचों ग्रथों का एक अंग्रेजी अनुबाद भी हो, जो अंग्रेजी के माध्यम से पढने प्रामाणिक शुद्ध मस्करण तैयार हो जाना चाहिए । मूलानुवालों तथा विदेशों में प्रचार की दृष्टि से उपयोगी और गामी हिन्दी अनुवाद मे फिर कोई दिक्कत नहीं, वह एक महत्त्वपूर्ण हो। इस तरह दो जिल्दों में ग्रंथावली के तरह से तो प्रायः तैयार जमा ही है-कही-कही कुछ निकल जाने पर तीसरा आवश्यक कार्य समन्तभद्र भारती शब्द परिवर्तन की शायद जहरत पड़े । अंग्रेजी अनुवाद कोश' का होगा, जिसके विषय में उन्होने मेरी दृष्टि को उमी के आधार पर हो जावेगा। प्रामाणिक सस्करण की जानना चाहा है और शब्दो का इन्डेक्स पहले तैयार होना व्यवस्था का काम डॉ० साहब को स्वयं अपने हाथ में पावश्यक व्यक्त किया है। इन्डेक्स तो कई वर्ष से तैयार लेना चाहिए और उसकी चर्चा को शीघ्र ही एक दो पत्रों है-१६६ पृष्ठों पर है और इसमें स्वामी समन्तभद्र के में चला कर विद्वानों को उसमे लगाना चाहिए। फिर उपलब्ध पांचों ग्रन्थों के सभी शब्दो का सकलन है ---कौन ५ या ७ विद्वानो की एक समिति बैठकर उसका प्रतिम शब्द किस ग्रंथ में कहाँ कहाँ पर कैसे प्रयुक्त हुआ है यह निर्णय कर देगी, और तव बारमेवामंदिर ट्रस्ट की ग्रथ सब उसमे दर्शाया है । इसके निर्माण मे जिस दृष्टि अथवा माला में 'समन्तभद्रभारतीकोश' को भी पूरा करके प्रकाश शैली को अपनाया गया है उसका सूचक एक पर्चा भी। मे ले आया जायेगा। साथ में सलग्न है जो इस प्रकार है अब रही 'ममन्नभद्र' मामिक की बात, जो स्मारक (१) शुरू मे मूल शब्द अविभक्तिक दिया जाये और की योजना-उपेक्षा एक बहुत छोटा कार्य है, उसका उक्त फिर उसके पुलिंग और स्त्री-नमक रूपों को अकागदि कार्यों की दृष्टि से स्थगित रखना किसी तरह भी उचित क्रम से दिया जाये। नहीं है। उसे तो शीघ्र से शीघ्र निकालना चाहिए । वह (२) ग्रन्थ के समस्त पदों के पृथक्-पृथक् शब्द हो पत्र ही विद्वानो तथा अन्य जनों में चेतना उत्पन्न करेगा यथा स्थान दिये जाये और ऐसे समस्त पद भी ग्रहण और उन्हे अपने-अपने कर्तव्य पालन में जागरूक एव किये जाये जिनका अर्थ दृष्टि से पार्थक्य हो; अन्य पारि सावधान बनायेगा । उसके विषय में विद्वत्परिपद् के भाषिक अपार्थक्य द्योतक शब्द भी लिये जावे । अध्यक्ष को जो मैने पत्र लिखा है उसमें अपनी इच्छा को (३) मूलरूप के ग्रहण के साथ ही शब्द की शक्ल व्यक्त करते हए मैने यह स्पष्ट कर दिया है कि विद्वत्पबदलने वाले प्रत्ययों के रूप भी मात्र हाइफन देकर ले रिषद् पूर्णतत्परता के साथ इस पत्र को शीघ्र निकालने लिये जावे। __ की कृपा करे, पत्र की फार्म संख्या ४ से कम न हो, (४) सर्वनाम शब्दों के प्रत्येक विभक्ति के रूप चाहे जिसके प्रायः ढाई फार्मों में स्वामीजी के विचारो का तद्रूप हों चाहे रूपान्तरित हों मूलरूप देकर अकारादिक्रम विवेचन, व्याख्यान, स्पष्टीकरण, रहस्योद्घाटन एवं से उसमे अन्तरित किये जायें। महत्व-ख्यापन रहे । ऐसे खोजपूर्ण लेख भी रहे जो स्वामी (५) सोपसर्ग घातु के रूप मूलधातु के साथ नहीं जी की जीवनी से सम्बन्ध रखते हों और उस पर अच्छा
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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