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________________ शुभचन्द्र का प्राकृत लक्षण : एक विश्लेषण १६५ जिसमें सूत्रों के अर्थस्पष्टीकरण के साथ प्राकृत शब्दों के शेषेऽव्यवः शश२२-युक्तस्य हलोलोपे योऽवशिउदाहरण हैं। व्यतेऽच् स दोष तस्मिन् शेषे स्वरे परे मचः सन्धिर्न ___ वररुचि ने द्वादशाध्यायी प्राकृत व्याकरण लिखा था, भवति । यथा-कुम्भ पारो। उसी के अनुकरण पर त्रिविक्रम ने द्वादशपदी लिखा और शुभचन्द्र ने उक्त नियम के सम्बन्ध में लिखा हैत्रिविक्रम के व्याकरण का अनुकरण कर शुभचन्द्र ने शेषे स्वरस्य १।१०२३-व्यञ्जने लुप्ते य स्वरोऽव द्वादशपादों में उक्त प्राकृत लक्षण नाम का व्याकरण लिखा शिष्यते स शेषः तस्मिन् शेषे स्वरे परे स्वरस्य सन्धिन है । सूत्र संख्या और प्रयुक्त उदाहरणों की दृष्टि से यह भवति । यथा-गयणेच्चिऊ गन्धउडि कुणन्ति । व्याकरण ग्रन्थ अबतक के उपलब्ध समस्त प्राकृत व्याक- उक्त तीनों शब्दानुशासकों के नियमो की तुलना से रणो में बृहत्तर है। हेमचन्द्र ने सिद्ध हेम शब्दानुशासन यह स्पष्ट है कि शुभचन्द्र की प्रतिपादन प्रक्रिया सरल के प्राकृत भाग में १११६ सूत्र और त्रिविक्रम ने कुल और स्पष्ट है । शुभचन्द्र ने सूत्रों को स्पष्ट रूप में लिखने १०३६ सूत्र रचे हैं। शब्दानुशासन की दृष्टि से प्राकृत का पूरा प्रयत्न किया है। भाषा को अवगत करने के लिए यह व्याकरण बहुत ही इस व्याकरण मे वर्गों का व्यत्यय सम्बन्धो अनुशासन मुबोध है । इस व्याकरण में प्राकृत भाषा के स्वरूप गठन अन्य प्राकृत व्याकरणो की अपेक्षा स्पष्ट और विस्तृत है। के सम्बन्ध मे अच्छा विचार किया है। प्रथम अध्याय के यहा उदाहरणार्थ करेणु, वाराणसी, मरहट्ठ, प्राणाल, प्रथमपाद मे पन्द्रह सज्ञा मूत्रो के अनन्तर 'प्राकृतम्' सूत्र अचलपुर, णलाड, दहो, गुटह, हलियारो, हलुओ, दवीपरो, का अधिकार प्रारम्भ कर "देश्य तवं तत्सममार्षञ्च" णिहवो आदिको उपस्थित किया जा सकता है। उक्त शब्द १।१।१६-तत्प्राकृतं क्वचिदेशेभव, क्वचित्सस्कृतभव क्व- वर्णव्यत्यय से सिद्ध किये गये है। शुभचन्द्र ने इस सन्दर्भ चित् सस्कृतसमान क्वचित् ऋषिप्रोक्तमिति बहुधा स्यात् । म लगभग १५ सुत्रो की रचना कर उक्त विकरण का तद्यथास्थान दर्शयिष्यामः । अर्थात् प्राकृत भाषा के कुछ अनुबन्धन किया है। शब्द देशज है, कुछ सस्कृतसे उत्पन्न है, कुछ सस्कृत समान पल्लिङ्ग शब्दो से स्त्रीलिंग रूप बनाने की विधि का है और कुछ शब्द आर्ष है। इन शब्दोका यथा स्थान निरूपण करते हुए लिखा हैविवेचन किया जायगा। "नुरजातेरीर्वा" ।।२६-प्रजातिवाचिनः पुलिङ्गात् इस प्रकार प्राकृत भाषा का स्वरूप निर्धारण कर स्त्रिया वर्तमानात् ई प्रत्ययो बा भवति । यथा-हसमाणी, प्राकृत शब्दों के रूपों को 'बहुल' कहा है अर्थात् प्राकृत हसमाणा, सप्पणही, सुप्पणहा, सोली, सीला, काली, काला, शब्दों के रूप विकल्प से निष्पन्न होते है। नीली, नीला, आदि। इस प्राकृत लक्षण की प्रमुख विशेषता स्पष्ट रूप में इस प्रसग मे गोरी, कुमारी प्रभृति शब्दो का रूप शब्दानुशासन की है। यहां उदाहरणार्थ दो-एक सूत्र उद्धृत सस्कृत रूपो के समान प्रतिपादित कर "प्रत्यये" २।२।३७ कर उक्त तथ्य की पुष्टि की जायगी। व्यञ्जन के लोप सूत्र द्वारा अण् प्रत्ययान्त पुल्लिङ्ग शब्दों को स्त्रीलिंग होने पर जो स्वर शेष रह जाता है, उस स्वर की सन्धि बनाने के लिए 'ई' प्रत्यय का विधान किया है। यथानहीं होती। इस नियम का प्रतिपादन प्राचार्य हेमचन्द्र ने साहणी, साहणा, कुरुचरी, कुरुचरा प्रादि । इस प्रसग मे "स्वरस्योद्वत्ते" शश-व्यञ्जनसपृक्तः स्वरो व्यञ्जने सस्कृत व्याकरण मे प्रतिपादित नियमों के अतिरिक्त लुप्ते योऽवशिष्यते स उद्वत्त इहोच्यते । स्वरस्य उद्त्ते स्वरे प्राकृत के देशज और संस्कृतोद्भव शब्दो के स्त्रीलिंग मे परे सन्धिर्न भवति । यथा-निसा-अरो। निबन्धित रूपों का भी प्रतिपादन हुआ है। साधारणतः हेम के उक्त नियमानुसार उत्त स्वर की सन्धि नहीं यह अनुशासन अन्य सभी प्राकृत व्याकरणों में पाया जाता होती। इसी नियम का प्रतिपादन त्रिविक्रम व्याकरण में है, पर यहां विस्तार के साथ स्पष्टता भी वर्तमान है । निम्न प्रकार हुमा है प्राकृत के देशज शब्दों को गणों में विभक्त कर प्रद
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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