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________________ अनेकान्त शित किया है। गोणाद्या, अहियांबा, तृनांबा, पुपायाद्यावा है, जिनकी पावश्यकता थी। इन पुराने उदाहरणों के प्रति गणों में देशी शब्द परिगणित किये है। निपातन अतिरिक्त कुछ नये उदाहरण शब्द भी उपस्थित किये से सिद्ध होने वाले देशी शब्दों का प्रयोग किस-किस अर्थ गये हैं। में होता है, यह सूत्र-वृत्ति सहित निरूपित है । विभक्ति- अपभ्रंश अनुशासन का प्रारंभ "प्रायोऽपभ्रशे स्वराणां अर्थ का विचार पर्याप्त विस्तार पूर्वक किया है। द्वितीय स्वराः" ३।४।१ सूत्र से किया है। यह सूत्र भाव की दृष्टि अध्याय के तृतीय पाद के ३६वें सूत्र से ५१वे सूत्र तक से त्रिविक्रम के समान और शब्दविन्यास की दृष्टि से हेम विचार किया है। अन्य प्राकृत व्याकरणो की अपेक्षा कति- के तुल्य है। इस सूत्र के स्पष्टीकरण के लिए दिये गये पय नये नियम और उदाहरण भी आये हैं। उदाहरणो में हेम और त्रिविक्रम दोनो की ही अपेक्षा मा, तृतीय अध्याय के प्रथम पाद मे क्रियारूपोंका विस्तार रेखा, कच्छ, कच्छा शब्द अधिक पाये हैं । अपभ्रंश भाषा पूर्वक निरूपण किया है। कृदन्त और तद्धित प्रत्ययों का के अनुशासन को निम्नलिखित रूपों में वर्गीकृत किया जा कथन भी इस व्याकरण में सोदाहरण पाया है। इन उदा- सकता हैहरण रूपों में देशज और आर्ष शब्दों की एक लम्बी १ अपभ्रंश में संज्ञा शब्दों के अन्तिम स्वर विभक्ति तालिका है। लगने के पूर्व कभी ह्रस्व और कभी दीर्घ हो जाते हैं। प्रस्तुत व्याकरण में शुभचन्द्र ने सामान्य प्राकृत, यथा-ढोल्ल-ढोल्ला, सामल सामला, स्वर्णरेखा-सुवण्णशौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिक पैशाची और अपभ्रश रेख। इन छ: प्राकृत भाषाओं का अनुशासन निबद्ध किया है। २ अपभ्रश मे किसी शब्द का अन्तिम प्र कर्ता और सामान्य प्राकृत का नियमन नौ पादों में और दशवे पाद कर्म के एक वचन मे उ के रूप में परिवर्तित हो जाता के ३६ सूत्रों तक पाया है। शौरसेनी प्राकृत का नियमन करते हुए अन्त मे "प्राकृतवच्छेषं" ३१२१४० कह कर , है। यथा-दहमुह, भयकरु, चउमुहु, भयकद । सामान्य प्राकृत के नियमानुसार शौरसेनी के नियमो को ३ अपभ्रश में पुलिङ्ग सज्ञा शब्दों का अन्तिम अ अवगत करने की योर सकेत किया। इसी प्रकारची कर्ताकारक एकवचन मे प्रायः प्रो में परिवर्तित हो के अनुशासन सम्बन्धी प्रमुख नियमो को बतला कर 'शेष जाता है। प्राकृतवत्' जान लेने का सकेत किया है। तृतीय अध्याय ४ अपम्रश मे सज्ञामो का अन्तिम प्र करणकारक के तृतीय पाद के अन्त में निम्नलिखित पांच भाषामो के एकवचन मे इ या ए; अधिकरण कारक एकवचन मे भी नियमन की चर्चा की गई है। यथा इ या ए में परिवर्तित होता है। इन्ही संज्ञाओं के करण भाषापंचक सद्व्याख्या शुभचन्द्रण सूरिणा। कारक बहुवचन में विकल्प से 'अ' के स्थान पर ए होता शब्द चिन्तामणौ नून विहिता बुद्धिसिद्धये ॥ है। अकारान्त शब्दोमे अपादान एकवचनमे हे या हु विभक्ति तृतीय अध्याय के चतुर्थ पाद मे १५८ सूत्रो मे अप- अपादान बहुवचन मे हुँ विभक्ति; सम्बन्धकारक एकवचन भ्रंश भाषा के स्वरूप-गठन का निरूपण किया है। इस में सु और होस्सु विभक्तियो एव सम्बन्धकारक बहुअनुशासन में अन्य प्राकृत व्याकरणो की अपेक्षा उदाहरणों वचन में हें विभक्तियां जोड़ी जाती है। को विशेषता है। हेमचन्द्र और त्रिविक्रमने अपभ्रंश शब्दों ५ इकारान्त और उकारान्त शब्दों के परे षष्ठी के उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए अपभ्रश के पुराने दोहे विभक्ति के बहुवचन 'आम्' प्रत्यय के स्थान पर हैं और उपस्थित किये है, जिससे उदाहरणों की संख्या उतनी है, पञ्चमी एकवचन मे हे; बहुवचनमे हैं; सप्तमी एकनहीं पा सकती है, जितनी होनी चाहिए थी। शुभचन्द्र ने वचन मे हि तथा तृतीय विभक्ति एकवचन में हैं और सूत्रों के नियमो की चरितार्थता दिखलाने के लिए दोहों ण विभक्ति चिन्हो का प्रयोग होता है। मे से केवल उन शब्दों को ही उदाहरण के रूप मे रखा ६ अपभ्रश भाषा में कर्ता और कर्म के एकवचन
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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