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अनेकान्त की उपलब्ध होती है। प्रतः प्रेमीजी ने जो वि० सं० उल्लेख पाया है तथा मूलसंघ बलात्कार गण के श्रवणसेन १८४२ के बाद सिद्धक्षेत्र के रूप में मान्य होने का अनुमान और कनकसेन नामक दो भाइयों का भी निर्देश किया है। किया था, वह समीचीन नही है। पूवोंक्त विचार विनिमय विक्रम स० ३३५ तो अशुद्ध है; क्योकि बलात्कार गण से इस क्षेत्र की प्रसिद्धि का समय १५वीं शती तक पहुंच का अस्तित्व दशमी शती के पूर्व के वाङ्मय मे नहीं मिलता जाता है।
है। इस गण का सबसे प्राचीन अभिलेख ई० सन् १०७५ सोनागिरि क्षेत्र पर संकलित प्राचीन ग्रन्थों की पाण्ड- का उपलब्ध है । अतः स्वर्गीय प्रेमीजी ने वि० स०१३३५ लिपियां भी इस क्षेत्र की प्राचीनता सिद्ध करती हैं। यहां का अनुमान किया था, पर कालगणना करने पर यह काष्ठासंघी चन्द्रकीर्ति के शिष्य भट्टारक अमरकीति द्वारा सवत् भी अशुद्ध प्रतीत होता है। हमारा अनुमान है कि बिरचित 'णेमिणाहचरिउ' की प्रति प्राप्य है। इस ग्रन्थ का "तीन सतक पेतीस" पाठ प्रशद्ध है और इसके स्थान पर रचनाकाल वि० स० १२४४ भाद्रपद शुक्ला चर्तुदशी है। "एक सहस पैतीस" होना चाहिए । उक्त पाठ मे "दिना" सोनागिरि भण्डार में उपलब्ध प्रति का लेखनकाल वि० शब्द भी विचारणीय है। ज्योतिष में "दिन' शब्द दो स० १५१२ है।
अर्थों मे उपलब्ध होता है--दिवस और रविवार । भार
तीय परम्परा मे सप्ताह का प्रथम दिन रविवार को माना पण्डित पाशाधरजी ने स्वोपज्ञ सहस्रनाम की रचना
गया है, अत: कालगणना प्रसग मे 'दिन' रविवार का अर्थ की है । इस ग्रन्थ पर श्रुतसागर सूरि ने वि० सं० १५७०
बोध करता है। यतः प्रथम वारेश 'रवि' है, जिससे मे सस्कृतटीका लिखी है। इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि भी
सामान्यतः बारेश के आधार पर 'दिन' रविवार के अर्थ मे यहाँ के ग्रन्थागार में प्राप्य है।
व्यवहृत है। इस प्रकार अभिलेख से वि० स० १०३५ प्रतिमालेख
पौष शुक्ला पूर्णिमा रविवार को जीर्ण मन्दिर के निर्माण प्रतिमालेखो से भी इस क्षेत्र की प्राचीनता पर प्रकाश
किये जाने का फलितार्थ निकलता है। कालगणना करने पडता है । यहाँ का मुख्य मन्दिर चन्द्रप्रभ स्वामी का है।
पर वि० स० १०३५ मे पौष पूणिमा भी रविवार को इस मन्दिर का जीर्णोद्धार वि० स० १८८३ मे मथुरा के
पडती है, अत. चन्द्रप्रभ स्वामी का प्राचीन मन्दिर वि. सेठ लखमीचन्द द्वारा सम्पन्न हुआ है। इस मन्दिर मे
१०३५ मे निर्मित हुआ है। चन्द्रप्रभ स्वामी की प्रतिमा जीर्ण मन्दिर के शिलालेख का साराश ग्रह्य कर हिन्दी मे
का स्थापत्य भी मध्यकालीन है, इस प्रकार की मूत्तियाँ पद्यबद्ध अभिलेख अकित किया गया है । यथा
खजुराहो के कालावशेषो में भी उपलब्ध है। प्रतएव मुख्य मन्दिर सह राजतभये, चन्द्रनाय जिन ईस ।
मन्दिर का निर्माण विक्रम की ११वीं शती मे हुआ होगा। पोशसुदी पूनम दिना, तीन सतक पैतीस ॥
सोनागिरि क्षेत्र मे अन्य प्राचीन मूर्तिलेख भी उपलब्ध मूलसंघ पर गण करो (ह्यो), बलात्कार समुदाय ।
है। यहाँ १६ सख्यक मन्दिर राजाखेड़ा (धौलपुर) के श्रवणसेन अरु दूसरे, कनकसेन दुइ भाय ॥
जैसवाल समाज का है। इस मन्दिर मे निम्नलिखित दो वोजक प्रक्षर बाँचके, कियो सुनिश्चय राय ।
प्राचीन अभिलेख पाये जाते है :-१ सवत् १२१३ गोलाऔर लिख्यो तो बहुत सौ. सो नहि परयो लखाय॥ १ स्वस्तिश्री चित्रकूटाम्नायदावलि मालवद शान्तिनाथदेव इस अभिलेख मे संवत् ३३५ पौष शुक्ला पूर्णिमा का सम्बन्ध श्रीबलात्कार-गण मुनिचन्द्र-सिद्धान्त-देवर
शिसिनु अनन्तकीति-देवरु हेग्गडे केसव-देवङ्ग धारा१ जैनग्रन्थ प्रशस्तिसग्रह, द्वितीय भाग, वीरसेवा मन्दिर,
पूर्वक माडि कोटेवु प्रतिष्ठे पुण्य सान्ति ।-जैन शिलापृ० ६६ प्रस्तावना
लेख संग्रह द्वितीय भाग, २०८ सख्यक । यह अभिलेख २ जैन साहित्य और इतिहास, बम्बई, द्वितीय संस्करण बलगाम्बे मे चन्नबसवप्प के खेत मे एक भग्नमूर्ति पर पृ० ४३५
उपलब्ध हुमा है।