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________________ सोनागिरि सिद्धक्षेत्र और तत्सम्बन्धी साहित्य पल्लीवसे सा० साबू सोढो, साधू श्री लल्लूभार्या जिणा, भगीरथ ने वि० सं० १८६१ मे ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्दशी तयो सुत साबू दील्हा भार्या पल्हासस जिननाथं सविनयं को इसे पूर्ण किया है। इस कृति में क्षेत्र के मुख्य मन्दिर प्रणमन्ति। परिक्रमा एव अन्य मन्दिरो का वर्णन किया है। उन दिनों + + + + में इस क्षोत्र पर कार्तिक सुदि पूर्णिमा को मेला लगता था। २ सवत् १६४३ वर्षे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बला- कवि ने इस मेले का सजीव चित्रण किया है। यथास्कारगणे (श्री) चारुणदीदेव तदन्वये श्री गोल्लाराडान्वये मेला है जहा को कातिक सुद पूनौ को, सा० नावे भार्या केवल एक पुत्र नगउ गोल्लासुत सेठ हाट हू बजार नाना भांति जुरि पाए हैं। चल्लाती नित्य प्रणमन्ति । भावधर वंदन को पूजन जिनेद्र काज, मूर्तिलेखो के अतिरिक्त इस मन्दिर मे दो-तीन अन्य पाप मूल निकंदन को दूर हू से धाए हैं। प्रतिमाएँ भी ११-१२वी शती की कलासूचक है। मध्य- गोठ जेउनारे पुनि दान देह नानाविधि, कालीन पाषाण, स्थापत्य एवं अङ्गोपाङ्ग की प्राकृति सुर्ग पंथ जाइवे को पूरन पद पाए हैं। 'नागर' शैली की है। अन्य एकाध मन्दिर में भी प्राचीन कोजिए सहाय पाइ पाए हैं भगीरथ, प्रतिमाएँ विराजमान हैं। गुरुन के प्रताप 'सोनागिरी' के गुण गाए हैं। नीची पहाडी पर निर्मित मन्दिरो का स्थापत्य मुगल कृति के रचनाकाल का निर्देश करते हुए बताया गया कला से प्रभावित है। यहां के गुम्बजो का आकार-प्रकार हैएवं कोणाकार तोरण मुसलमानी कला के अनुरूप है। जेठ सुदी चौदस भली, जा दिन रची बनाय। प्राय. सभी मन्दिर सौ-दी-सौ वर्ष से प्राचीन प्रतीत नही संवत् अष्टावस इकिसठ, संवत लेउ गिनाइ॥ पद सुन जो भाव घर, मोरे देइ सुनाई। होते । मनवांछित फल को लिए, सो पूरन पद को पाइ॥ सोनागिरि क्षेत्र सम्बन्धी साहित्य इस पच्चीसी मे कवि ने क्षेत्र के मन्दिरों का भी ___ सोनागिरि क्षेत्र के सम्बन्ध मे कई पूजापाठ एव माहा सक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है। क्षेत्र की वदना से रम्य सूचक रचनाएँ उपलब्ध होती है । भट्टारक जगद्भूषण अन्तरात्मा पावन हो जाती है और कर्मकालुष्य नष्ट के शिष्य भट्टारक विश्वम्भूषण ने वि. स. १७२२ के हो जाता है । भावपूर्वक वन्दना करने से विशुद्धता और लगभग "सर्व लोक्य जिनालय जयमाला" नामक एक पवित्रता के साथ मनोकामनाएँ भी पूर्ण होती है। क्रोध, लघुकाय ग्रन्थ रचा है। इसमे सिद्धक्षेत्र और अतिशय क्षेत्र मान, माया और लोभ रूप कपाय क्षीण होती है तथा और अतिशयक्षेत्रों का विवेचन किया गया है। भट्टारक ज्ञान, श्रद्धा, भक्ति की समृद्धि होने से परमानन्द की उपविश्वभूषण सोनागिरि के भट्टारक थे, अत: इन्होंने अपने लब्धि होती है। कवि ने विवरणात्मक परिचय के साथ उक्त ग्रन्थ का सोनागिरि की वन्दना से किया है : क्षेत्र का प्रान्तरिक महत्त्व भी अकित किया है। सिद्धक्षेत्र सोनागिरि बुंदेलखंडे, पायातो चन्द्रप्रभचंडे । के रूप मे मूल्याङ्कन उपस्थित करते हुए तीर्थवदना को पंचकोडि रेवा वहमान, रावनसून मोक्ष शिवजाणं ।३२ कर्मनिर्जरा का हेतु प्रतिपादित किया है। + + + + + 'स्वर्णाचलमाहात्म्यम्' सस्कृत काव्य की रचना कान्यमूलसंघ शारदबरगच्छे बलात्कार कुन्दान्बय हंस ॥६६ कुब्ज ब्राह्मण कुल मे उत्पन्न देवदत्त दीक्षित ने की है। जगताभूषण पट्टदिनेशं, विश्वभूषण महिमा ज गणेशं। ये भदौरिया राजामो के राज्य में स्थित अटेर नामक नगर लाडभव्य उपदेश सुरचिता, सदाचने जयमाल सचीता ॥९७ के निवासी थे। इन्होने भट्टारक जिनेन्द्रभूषण की आज्ञा सोनागिरि पच्चीसी ऐतिहासिक रचना है, इसमे से 'स्वर्णाचलमाहात्म्य' और सम्मेदशिखर माहात्म्य' इन सोनागिरि क्षेत्र का सक्षिप्त इतिवृत्त वणित है। कवि दोनों ग्रन्थों की रचना की है। इस ग्रन्थ मे यौधेय देश के
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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