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________________ २१६ प्रनेकान्त आपने कभी कोई लेख झट-पट नही लिखा । सम्मति से प्रार्थना क्यो ? है, जिनमें भक्ति के स्वरूप का सुन्दर तर्क के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर पर जो 'सम्मतिसूत्र और विवेचन किया गया है । और निष्काम भक्ति से होने वाले सिद्धसेन' नामका निबन्ध मुख्तार सा० नेलिखा है और जो सुखद परिणाम का अच्छा चित्रण किया है । उन्होने सिद्धि अनेकान्त वर्ष की ११वी १२वी किरण में प्रकाशित हुआ को प्राप्त शद्धात्मानों की भक्ति द्वारा प्रात्मोत्कर्ष साधने है । वह कितना युक्ति पुरस्सर है इसे बतलाने की आव- का नाम 'भक्तियोग' अथवा 'भक्तिमार्ग, बतलाया है। श्यकता नहीं, पाठक उसे पढकर स्वय अनुभव कर सकते वह यथार्थ है, पूजा, भक्ति, उपासना, अाराधना, स्तुति, है। उसमे जो युक्तिया दी गई है, उनका उत्तर प्राज प्रार्थना, वन्दना और श्रद्धा सब उसी के नामान्तर है। तक भी नही हुआ । खींचा तानी की जा सकती है, पर अन्तर्दृष्टि पुरुषो के द्वारा प्रात्म-गुणो के विकास को निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर मुख्तार साहब का लक्ष्य में रखकर जो गुणानुराग रूप भक्ति की जाती है लिखना युक्ति संगत और प्रमाण भूत है । यह स्क्य अनु- वही आत्मोत्कर्ष की साधक होती है । लौकिक लाभ, पूजा, भव में आ जाता है, उसमे तथ्यों को तोड़ा मरोड़ा नही प्रतिष्ठा, यश, भय और रूढि प्रादि के वश होकर जो गया है प्रत्युत वास्तविक तथ्यों को देने का उपकृम किया भक्ति की जाती है उसे प्रशस्त अध्यवसाय की साधक नही गया है। उनकी समीक्षात्मक दृष्टि बडी पैनी और तर्क- कहा जा सकता, और न उससे संचित पापों का नाश, या शालिनी है । समीक्षा लेखो के अतिरिक्त शोध-खोज के अत्म-गुणों का विकास ही हो सकता है। स्वामी समन्तलेख भी उनके महत्वपूर्ण है । उदाहरण के लिये 'स्वामी भद्र जसे महान् दार्शनिक आद्य स्तुतिकार ने भी परपात्र केसरी और विद्यानन्द' वाला लेख कितना विचार मात्मा की स्तुति रूप भक्ति को कुशल परिणाम की हेतु पूर्ण और नवीन तथ्यों को प्रकाश में लाने वाला बतलाकर उसके द्वारा |योमार्ग को सुलभ और स्वाधीन है, उसमें उन दोनों को एक समझने वाली भ्रान्ति का बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि वीतराग परमात्मा की उन्मूलन कर वस्तु स्थिति को स्पष्ट किया गया है। इसी यथार्थ भक्ति केवल परिणामों की कुशलता की ही सूचक नही तरह 'भगवान महावीर और उनका समय' वाला लेख भी प्रत्युत प्रात्म-सिद्धि की सोपान है-धातिकर्म का विनाश सम्बद्ध और प्रामाणिक है, यद्यपि उनके लेख कुछ विस्तृत है, कर निरंजन भाव की साधिका है। मुख्तार सा० ने जो पर वे रोचक और वस्तुस्थिति के यथार्थ निदर्शक है। इसी कुछ लिखा वह प्राचार्यों द्वारा प्रतिपादित परम्परा से तरह श्वेताम्बर तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाप्य की जाच, लेकर ही लिखा है। उन्होंने उसमे अपनी तरफ से कछ तत्वार्थाधिगम सूत्र की एक सटिप्पण प्रति, समन्तभद्र का भी मिलाने का प्रयत्न नही किया; किन्तु उसके भाव को मुनि जीवन और आपत्काल समन्तभद्र का समय और अपने शब्दो एवं भावों को भाषा सौष्ठव के साथ प्रकट डा० के० वी० पाठक, सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का किया है। प्रभाव, जैन तीर्थ करो और जैनाचार्यो का शासन-भेद, आप के सामाजिक लेख क्रान्ति के जनक है। आप रत्नकरण्ड के कर्तत्व विषय मे मेरा विचार और निर्णय के उन लेखों से जैन समाज मे क्रान्ति की धारा बह आदि लेख भी वस्तुतत्त्व के निदर्शक है । और भी अनेक चली। उनसे समाज मे क्रान्ति तो जरूर हुई किन्तु वह लेख है, जो उनकी शोध और समीक्षात्मक दृष्टि के जनक अस्थायी रही । सामाजिक लेखो में 'जैनियो मे दया का है। लेखों की भाषा भी प्रौढ़ सम्बद्ध और स्पष्ट है। अभाव', 'जैनियों का अत्याचार', नौकरी से पूजा कराना, उपासना सम्बन्धी लेख भी उनके कम महत्वपूर्ण नही 'जनी कौन हो सकता है' जाति पचायतो का दण्ड विधान है, वे भक्ति योग पर अच्छा प्रकाश डालते हैं, और जाति प्राचार्य भेद पर अमित गति, विवाह समुद्दे श प्रादि लेख निष्काम भक्ति की महत्ता के हार्द को प्रस्फुटित करते है। समाज में जागृति लाने वाले हैं। इन लेखों में उस समय भक्तिपरक निबन्धों में 'उपासनातत्त्व, उपासना का ढग की कुत्सित प्रवृत्तियो की आलोचना करते हुए समाज में भक्तियोग रहस्य, वीतराग की पूजा क्यों ? और वीतराग नवजीवन लाने के लिए प्राडम्बर युक्त प्रवृत्तियों को अनु
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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