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मुख्तार साहब का व्यक्तित्व और कृतित्व
पं० परमानन्द शास्त्री
प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार इस युग के साहित्य रहती । यद्यप्रि मुख्तार सा० की प्रकृति मे नीरसता थी, तपस्वी और जैन साहित्य और इतिहास के वयोवृद्ध और वह कभी कभी कठोरता मे भी परिणत हो जाती विद्वान लेखक थे । पक्के सुधारक, स्वाभिमानी, अपनी थी। कषाय का आवेश भी उनमे झुझलाहट उत्पन्न करता, बात पर अडिग, प्रतिभा के धनी और समीक्षक थे। पर वे उसे बाहर प्रकट नही करते थे। अवसर पर उसका उनकी प्रतिभा तर्क की कसौटी पर कस कर ही किसी प्रभाव अवश्य कार्य करता था । वे इतिहास की दृष्टि मे बात को स्वीकार करती थी । वह जो कुछ असम्प्रदायिक थे। उन्हें सम्प्रदाय से इतना व्यामोह नही लिखते निडर होकर लिखते, दूसरे के लेखों में कमी था, वे सत्यता को पसन्द करते थे। प्रमाण व युक्ति से या विरुद्धता पाते तो उसका निराकरण करते, उनकी जो बात सिद्ध होती थी उसे वे कभी भी बदलने को तैयार भाषा कुछ कठोर होती, तो भी वे उसे सरल नहीं करते। नहीं होते थे । अनेक अवसरों पर वे इस बात मे खरे थे । हा, वे जो कुछ लिखते थे उसे बराबर सोच समझ कर प्रमाण विरुद्ध बात को कभी स्वीकार नहीं करते थे और लिखते उसमे विलम्ब भले ही हो जाता, पर वह सम्बद्ध न सुनी सुनाई बातो पर आस्था ही करते थे। जैसे कोई विचारधारा से प्रतिकूल नही होता था । मुझे उनके साथ दार्शनिक वा वकील अनेक तरह की दलीले देकर मुकदमा सरसावा और दिल्ली वीरसेवामन्दिर में काम करने का या विवाद मे जीतने या जिताने का प्रयत्न करता है वैसे वर्षों अवसर मिला है। जो लेख वे लिखना चाहते थे उस ही मुख्तार साहब भी प्रमाणो के आधार पर अपना अभिपर वे पहले चर्चा कर लेते थे और फिर लिखने बैठते । मत व्यक्त करते, अथवा लेख का निष्कर्ष निकालते थे । लेख पूरा होने पर या कभी-कभी तो अधूरा लेख ही सुनने इसीलिये उनके लेख विद्वत् जगत मे ग्राह्य और प्रमाण रूप व पढ़ने को दे देते । उसके सम्बन्ध मे वे जो कुछ पूछते में माने जाते है। वे अपनी सूक्ष्म विचारधारा एव व प्रमाण मांगते तो यथा सभव मै उन्हे तलाश कर देता आलोचना और समीक्षात्मक दृष्टि से पदार्थ पर गहरा था कभी-कभी वे रात को दो बजे लिखने बैठ जाते, तब चिन्तन तथा मनन करते थे। उनके समीक्षा ग्रन्थ भी मुझे आवाज देकर बुलाते, और मैं पाकर उन्हें यथेष्ट इसी बात के द्योतक हैं । भट्टारकों की अधार्मिक प्रवृत्तियो ग्रन्थ या प्रमाण निकाल कर दे देता । वे लिखना प्रारम्म और पाम्नाय विरुद्ध ग्रन्थ चर्चाओं पर उन्होंने जो करते और उसे ही पूरा करने में ही लगे रहते । उठते समीक्षाएं लिखी है वे जैन समाज मे प्रमाण रूप से मानी बैठते सदा उसी का विचार करते रहते थे। उसके पूरा जाती हैं, और अभी समाज में उनकी आवश्यकता बनी होने पर ही वे विराम लेते । फिर मुझे उसकी कापी करने हई है। यद्यपि वे अप्राप्य हैं, किन्तु भविष्य की पीढ़ी को देते । कापी होने पर उसे छपवाते । मै जब कोई लेख के लिये वे अधिक प्रमाण भूत होंगी। भविष्य के विचालिखता तो उन्हें जरूर सुनाता और वे जो कुछ रकों को वे पथ प्रदर्शन का काम अवश्य करेगी । समीक्षा निर्देश करते उसके अनुसार ही उसे पूरा कर उन्हे दे ग्रन्थ लिखकर उन्होंने विद्वानों के लिये मालोचना का देता था। यह क्रम सरसावा में चलता रहा, दिल्ली पाने मार्ग प्रशस्त कर दिया है । अब कोई भी विद्वान निर्भय पर कुछ वर्ष यहाँ भी चला। इससे लेखकी प्रमाणिकता होकर पार्ष मार्ग से विरुद्ध ग्रन्थों की समीक्षा कर हो जाती है और लेख में रही सही अशुद्धियां भी नहीं सकता है।