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________________ जैन अन्धों में राष्ट्रकूटों का इतिहास ११५ अमोघ वर्ष के शासनकाल तक जीवित थे। इनके द्वारा उल्लेख है । अतएव यह घटना शक सवत ७०५ के पश्चात् विरचित ग्रन्थों मे धवला और जयघवला टीकाएं बड़ी ही हुई है। प्रसिद्ध है। धवला टीका के हिन्दी सम्पादक डा० हीरा- जयघवला के अन्त में लम्बी प्रशस्ति दी हुई है। लाल जी ने इसे कार्तिक शुक्ला १३ शक संवत् ७३८ में इससे ज्ञात होता है कि बीरसेनाचार्य को इस प्रपूर्ण कृति पूर्ण होना वणित किया है और लिखा है कि जिस समय को जिनसेनाचार्य ने पूर्ण किया था। यह टीका शक संवत् राष्ट्रकूट राजा जगतग राज्य त्याग चुके थे और राजा- ७५६ मे महाराजा अमोघ वर्ष के शासनकाल में पूर्ण की धिराज बोहण राय शासक थे इसे पूर्ण किया' श्री ज्योति गई थी। प्रसाद जी जैन ने इसे अस्वीकृत करके लिखा है कि बहुचचित हरिवशपुराण की प्रशस्ति के अनुसार शक प्रशस्ति में स्पष्टत "विक्कम रायम्हि" पाठ है अतएव । सं० ७०५ मे जब दक्षिण मे राजा वल्लभ, उत्तरदिशा में यह विक्रम संवत् होना चाहिए। अतव उन्होंने यह तिथि इन्द्रायुध, पूर्व मे वत्सराज और सौरमडल मे जयवराह ८३८ विक्रम दी है। भाग्य से ज्योतिष के अनुसार दोनो राज्य करते थे तब बडवाण नामक ग्राम मे उक्त ग्रन्थ ही तिथियो की गणना लगभग एकसी है। लेकिन राज पूर्ण हुमा था। शक स० ७०५ की राजनैतिक स्थिति नैतिक स्थिति पर विचार करे। तो प्रकट होगा कि यह बडो उल्लेखनीय है। दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा का जो विक्रमी के स्थान पर शक सवत् ही होना चाहिए । इसका उल्लेख है वह सभवतः ध्रुव निरुपम है। गोविन्द द्वितीय मुख्य आधार यह है कि विक्रमी सवत का प्रचलन इतना । की उपाधि भी 'वल्लभराज' थी इसी प्रकार श्रवण वेल्गोला प्राचीन नही है । इसके पूर्व इस सवत का नाम कृत और के लेख न० २४ मे स्तम्भ के पिता ध्रुव निरुपम की भी मालव सवत मिलता है। विक्रमी सवत का सबसे प्राचीन उपाधि वल्लभराज है। गोविन्दराज का शासनकाल अल्पतम लेख १८ का धोलापुर से चण्ड महासेन का मिला कालीन है और शक स० ७०१ के धूलिया के दान पत्र के है। लेकिन इसका प्रचलन उत्तरी भारत मे अधिक रहा पश्चात् उसका कोई लेख नहीं मिला है अतएव यह ध्रुव है। गुजरात और दक्षिणी भारत में उस समय लिसे ताम्र नि निरुपम के लिए ठीक है। उत्तर में इन्द्रायुध का उल्लेख केलि है। उन पत्रों में शक संवत या वल्लभी संबत मिलता है। इसमें है। यह भण्डी वशी राजा इन्द्रायुध है। फ्लीट, भण्डारउल्लिखित जगतुग नि सन्देह राष्ट्रकूट राजा गोविन्दराज कर प्रभति विद्वानो ने भी इसे ठीक माना है। कुछ इसे तृतीय है और बोद्दणराय अमोघवर्ष । अगर विक्रमी संवत् गोविन्दराज (तृतीय) के भाई इन्द्रसेन मानते है जो उस ८३८ मानते है तो यह तिथि ७८१ ई० ही पाती है। समय राष्ट्रकूटो की अोर से गुजरात में प्रशासक था। उस समय गोविन्दराज का पिता ध्रुव निरुपम भी शासक स्वतन्त्र" राजा नही। प्रशस्ति में तो स्पष्टतः इन्द्रायुध नही हुआ था। इसके अतिरिक्त हरिवशपुराण में वार- पाठ है अतएव इस प्रकार के तोड मोड करने के स्थान सेनाचार्य का उल्लेख है लेकिन उनकी इस धवला टीका का पर इसे इन्द्रायुध ही माना जाना ठीक है। पूर्व मे वत्सउल्लेख नही है। स्मरण रहे कि इस प्रथ में समन्तभद्र, - - ७. शाकेष्वन्द शतेषु सत्यमुदिश पञ्चोत्तरेषूत्तरा, देवनन्दि, महासेन प्रादि प्राचार्यों के ग्रंथो का स्पष्टतः पातीन्द्रायुध नाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणा ४ अडतीसम्हि सतसए विक्कमरायं कि एसु सगणामे । पूर्वा श्रीमदन्तिभूभृतिनपे वत्सादिराजेऽपरा, वासे सुतेरसीय भाणु-विलग्गे धवल-पक्खे ।। सौराणामधि मडल जययुते वीरे वराहेऽवति ।। जगतुगदेवरज्जे रियम्हि कुभम्हि राहुणा कोणे । -हरिवशपुराण ६६-५२ । मूरे तुलाए संते गुरुम्हि कुलविल्लए होते ।। ८ अल्तेकर-राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टालम्स पृ० ५२-५३ धवला० १,१,१ प्रस्तावना ४४-४५। ६ Epigraphica-Indica- Vol. IV P. 196-195 ५ अनेकान्त वर्ष ७ पृ० २०७-२१२ : १० डा. गुलाबचन्द चोधरी-हिस्ट्री माफ नोर्दन इण्डिया ६. भारतीय प्राचीन लिपिमाला पृ०१६६ । फोम जैन सोर्सेज । पृ० ३३ ।
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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