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अनेकान्त
राज का उल्लेख है। शक स० ७०० मे लिखी गई अन्य दान पत्रो मे इसका स्पष्टतः उल्लेख है। प्रश्नोत्तर कुवलयामाला मे इस राजा को जालोर का शासक माना रत्नमाला में अन्तिम दिनों में उसका राज्य से विरक्त है । अवन्ति प्रतिहार राजापो के शासन मे सभवत' दति- होना" वर्णित है। अगर अमोघवर्ष जैनधर्म की पोर दुर्ग के शासनकाल से ही थी।
आकृष्ट नहीं होता तो निस्सन्देह जिनसेनाचार्य उसकी प्राचार्य जिनसेन" जो प्रादिपराण के कर्ता थे अमोघ प्रशसा में सुन्दर पद नहीं लिखते"। वर्ष के गुरु के नाम से विख्यात है। उत्तर पुराण की उसमे लिखा है कि उसके प्रागे गुप्त राजाओं की प्रशस्ति मे स्पष्टतः वणित है कि वह जिनसेनाचार्य के कीर्ति भी फीकी पड़ गई थी। सजान के दानपत्र मे भी चरण कमलों मे मस्तक रखकर अपने को पवित्र मानता
इसी प्रकार का उल्लेख है। उत्तरपुराण की प्रशस्ति मे था" । इसकी बनाई हुई प्रश्नोत्तर रत्नमाला नामक एक
अमोघवर्ष के उत्तराधिकारी राजा कृष्ण (द्वितीय) की" छोटी सी पुस्तक मिली है। इसके प्रारम्भ मे "प्रणिपत्य
प्रशंसा की है। किन्तु यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा वर्द्धमान" शब्द हैं । यद्यपि यह विवादास्पद है कि अमोघ
सकता है कि यह राजा जैन था अथवा नही। किन्तु वर्ष जैनधर्म का पूर्ण अनुयायी था अथवा नही किन्तु यह
इसका सामन्त लोकादित्य जो वनवास देश का राजा था सत्य है कि वह जैनधर्म की पोर बहुत आकृष्ट था। इसी
अवश्यमेव जैन था। इसकी राजधानी बकापुर थी। यह
जैनधर्म का बडा भक्त था । के शासनकाल मे लिखा गया महावीर प्राचार्य का गणितसार सग्रह नामक ग्रन्थ मे अमोघवर्ष के सम्बन्ध मे लिखा शिलालेखों और ताम्रपत्रो में भी गोविन्दराज और है कि उसने समस्त प्राणियो को प्रसन्न करने के लिये अमोघवर्ष का वर्णन मिलता है। गगवशी सामन्त चाकिबहत५काम किया था, जिसकी चित्तवृत्ति रूप अग्नि मे राज की प्रार्थना पर शक स० ७३५ में गोविन्दराज पापकर्म भस्म हो गया था। अतएव ज्ञात होता है कि (तृतीय) ने जालमंगल नामक ग्राम यापनीय सघ को वह बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति का था । इसमे स्पष्टतः जैन- दिया था। यह लेख गोविन्दराज (तृतीय) के शासनधर्मावलम्बी वणित किया है। राष्ट्रकूट शिलालेखों से काल का अन्तिम लेख है। उत्तर पुराण में वणित ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष कई बार राज्य छोड़कर
दित्य के पिता बाकेय के कहने पर अमोघवर्ष ने जैनमन्दिर एकान्त का जीवन व्यतीत करता था और राज्य युवराज
के लिये भूमिदान में दी थी ऐसा एक दानपत्र से प्रकट को सोंप देता था। सजान के दानपत्र के श्लोक ४७व होता है।
महाकवि पुष्पदन्द और सोमदेव उस युग के महान् ११ सगकाले बोलीणे बरिसाण सएहि सत्तहिं गएहि । एगदिणेणूणेहिं रइया अवरोह वेलाए॥
१६ अल्तेकर राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टाइम्स पृ० ८६-६० परभड भिउडी भंगो पणईयण रोहिणीकलाचदो। १७ गुर्जर नरेन्द्रकोतरन्तः पतिता शशाडूशुभ्रायाः । सिरिवच्छराय णामो णरहत्थी पत्थिवो जइया ।। गुप्तव गुप्तनृपतेः शकस्य मशकायते कीतिः ।।
-कुवलयमाला १८ हत्वा भ्रातरमेव राज्य महरत् देवी च दीनस्तथा, १२ मल्ते कर-राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टाइम्स पृ० ४०।। लक्षकोटिमलेखयत् किलकिलो दाता सगुप्तान्वयः । १३ "इत्यमोघवर्ष परमेश्वर परमगुरु श्री जिनसेनाचार्य येनात्याजि तनु स्वराज मसकुत बाह्यार्थः कः काकथा, विरचित मेघदूत वेप्टिते पाश्र्वाभ्युदये............" हस्तिस्योन्नति राष्ट्रकूट तिलक दातेति कीामपि ।।४८ (पार्वाभ्युदय के सर्गों के अन्त की पुष्पिका)
-[E. 1 Vol. 18 P. 235] १४ यस्य प्रांशुनखांशु जालविसरद्धारान्तराविर्भव- १६ उत्तर पुराण की प्रशस्ति श्लोक २६-२७
त्पादाम्भोज रजः पिशङ्ग मुकुट प्रत्यग्ररत्नधुतिः । २० उकर पुराण की प्रशस्ति श्लोक २६ और ३० १५ नाथराम प्रेमी-जैन साहित्य का इतिहास पृ० १५२ २१ जन लेख संग्रह भा० ३ की भूमिका पृ० १५ से १७