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स्वर्गीय पं० जुगलकिशोर जी
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तुलनात्मक निरीक्षण कर उन्होंने मुझे सत्परामर्श दिये। कर केवल उसकी उपकृतियों की प्राशंसा की पोर ही
सन् १९५० में जब मैं दर्शन-सम्मेलन (फिलो सोफी- ध्यान दिया गया, यह बात मुझे खटकी, परन्तु अधिक कल कांग्रेस) में भाग लेने कलकत्ता गया तो पंडित जी कुछ न कह सका। वहां पहले से ही श्री छोटेलाल जी के पास ठहरे हुए दिसम्बर, १९५७ में ऑल इण्डिया पोरिएण्टल थे। श्री छोटेलाल जी वीर सेवा मन्दिर की स्थायी स्थिति कॉन्फन्स दिल्ली में हुई, उसमें मैंने भी भाग लिया। के विषय में प्रति चिन्तातुर थे । सरसावा से उसका स्थान कॉन्फैन्स के पश्चात् पडित जी से मिलने गये। वे बड़े परिवर्तन दिल्ली हो या कलकत्ता आदि विषयों पर वे असन्तुष्ट-से प्रतीत हए। अपने सहायकों के प्रति उनके विचार कर रहे थे। एक विचार यह भी था कि बेल- पर्याप्त मभियोग थे। संस्था की अचल सम्पत्ति वृद्धि की गछिया मन्दिर में इसके लिये एक भवन ले लिया जावे। तो उनके सहायकों को चिन्ता थी परन्तु अनुसंधान का पंडित जुगलकिशोर जी की हार्दिक इच्छा थी वीर सेवा मख्य महत्वपूर्ण कार्य पीछे हटता-सा प्रतीत हो रहा था। मन्दिर की सेवा का भार मैं सेवक (ए. एन. उपाध्ये)
इसके अनन्तर प्राकृत टैक्स्ट सोसाइटी प्रादि की बैठकों ग्रहण करूँ, यदि तत्काल ही नही तो उनके अवकास ग्रहण में भाग लेने जब भी मैं दिल्ली गया, वीर सेवा मन्दिर में करने पर तो यह अवश्य हो जाना चाहिए । कलकत्ता मे
ठहर कर पंडित जी को सत्संगति का लाभ उठाने से भी अवकाश के समय हम दोनों "सन्मति सूत्र" के उस
वंचित न रहा । सन् १९६५ में जब मैं और डॉक्टर हीराअग्रेजी अनुवाद का पुननिरीक्षण करते रहे, जो मैंने पंडित
लाल जी काश्मीर मे प्रायोजित अखिल भारतीत प्राच्य जी की ही आग्रह पूर्ति के हेतु किया था। पडित जी श्री
परिषद् में भाग लेकर दिल्ली लौटे तो पंडित जी के छोटेलाल जी से बहुत कुछ प्राशा रखते थे। परन्तु छोटे- सानिध्य का लाभ हम दोनों को प्राप्त हुप्रा । उस समय लाल जी कुछ कहने या करने में बहुत सावधान थे। वे स्पष्टतः प्रतीत हो रहा था कि पंडित जी तथा छोटेलाल अपनी सामर्थ्य का उचित अनुमान कर लेते थे। उस जी के सम्बन्ध कुछ कटतर हो गये थे। पंडित जी ने हम समय हम तीनों एक साथ उदयगिरि एवं खण्डगिरि
एवं खण्डगिरि दोनों से आग्रह किया कि समझौते का कोई मध्यमार्ग खोज (उडीसा) गये, वहाँ से वापिस आकर दो-तीन दिन एक निकालें। हमारे भगीरथ प्रयत्न के बाद भी उन दाना के साथ ही कलकत्ता रहे।
रिक्त स्थान न भर सके। समीपस्थ सभी एव सम्वमार्च १९५५ में वीर सेवा मन्दिर समिति की बैठक न्धित व्यक्तियो से यह भी छिपा न था कि लिखित में भाग लेने के लिये मुझे विशेषरूप से दिल्ली पामन्त्रित रूप मे भी पर्याप्त कलक-पक उत्क्षिप्त हो चुका था। किया गया। श्री पडित जी और छोटेलाल जी दोनों अनसन्धान एव साहित्य का साधन मासिक पत्र भी इस लाल मन्दिर में ठहरे हुए थे। वीर सेवा मन्दिर को दिल्ली पड्रिलता से विमुक्त न था। इस वैषम्य का अन्त में यह लाना था। एक नया भवन निर्माण हो रहा था और उन परिणाम हया कि पंडित जी ने अपना एक अलग ट्रस्ट दोनों की माँखें बीर सेवा मन्दिर के अभ्युदय का भव्य बना लिया और उस वीर सेवा मन्दिर से अपना सम्बन्ध स्वप्न निहार रही थी । छोटेलाल जी इस सस्था की उन्नति त्याग दिया जिसका निर्माण छोटेलाल जी ने पंडित जी के विषय में प्रति चिन्तनशील थे। वे मेरे विषय में चाहते के पादरार्थ ही किया था। मैंने अनुभव किया कि कभीथे कि मैं संस्था से शीघ्रातिशीघ्र सम्बद्ध हो जाऊँ। मैंने कभी पंडित जी के हितषी व्यक्ति ही वातावरण को कटुअपनी कठिनाइयां उनके समक्ष रखीं, परन्तु स्वभावतः वे तामय बना देते थे। श्री छोटेलाल जी पंडित जी को पिता उन्हें नियाज रूप में न स्वीकार कर सके। इस अवसर के तुल्य अादर करते थे और प्रयत्न करते थे कि वीर सेवा पर हमने "लक्षणावली" के कई प्रकरणों को अन्तिम रूप मन्दिर पुरातत्व का वह व्यासपीठ बने कि इसका अन्तदिया। मैंने अनुभव किया कि वीरसेवा मन्दिर समिति की राष्ट्रीय पादरास्पद स्थान हो। उनके स्वप्न साकार न हो इस बैठक में संस्था की प्रार्थिक कठिनाइयों की उपेक्षा सके। उन्होंने अपने अन्तिम दिन व्याधि-पीड़ित अवस्था