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________________ २६० अनेकान्त में कलकत्ता में ही बिताये, उघर पंडित जी भी सेवा- वे मुझे प्रामाणिक सूचनाएं देने के लिए विस्तृत पत्र निवत्त होकर अपने भतीजे के पास एटा चले गये । अन्तिम लिखा करते थे। मै निश्चितरूप से यह कह सकता हूँ कि वर्षों में पंडित जी ने "अनेकान्त" से अपना नाता तोड़ उन्होंने मुझसे कभी किसी तथ्य की गोपनीयता नहीं रखी लिया था । श्री छोटेलाल जी की प्रार्थना को मान देते हुए एवं मेरी भी ज्ञापनाएँ उनके समक्ष विनम्र भाव से उपहम में से कुछ लोगो ने जनत्व की सेवा एव हित को दृष्टि स्थित रहती थी। उन्हें जब भी मेरे ग्रन्थों की आवश्यमे रखते हुए इसके सम्दादन एव प्रकाशन सम्बन्धी उत्तर- कता होती थी, वे मुझे निस्संकोच लिख देते थे। उनकी दायित्व को स्वीकार कर लिया था। बाञ्छनीय सामग्री को एकत्रित करने के लिए कम-से-कम पण्डित जुगलकिशोर जी उच्च विद्वान् थे एव उनका दो बार तो मुझे पूना जाना पड़ा था। अन्तिम वर्षों मे अध्ययन क्षेत्र व्यापक तथैव बहुमुखी था। उन्होने किसी कतिपय स्पष्ट कारणों से उन्होंने इस विनिमयात्मकमहाविद्यालय या विश्वविद्यालय में प्रशिक्षण प्राप्त नहीं अनुसन्धान पद्धति का न्यूनाधिक मात्रा में परित्याग कर किया था। वे केवल योग्य वकील रहे थे, जो साक्षियों दिया था। वयोवद्धता के कारण अन्तिम वर्षों में उनके को ठीक जांचने में एवं स्वीकृत वाद को सबल युक्तियों लिए यह सम्भव नहीं था कि वे अन्य पत्रिकाओं में प्रकासे सफल बनाने मे निष्णात थे। इस स्वाभाविक प्रतिभा शित अनुसन्धानात्मक लेखो का गहन अध्ययन कर समीक्षा से ही वे विपक्षी विद्वानों पर अपनी विद्वत्ता की धाक कर सकें, अतः मैंने उनसे प्रार्थना की थी कि वे भविष्य जमाने में समर्थ होते थे। यही कारण था कि उनकी में विचारात्मक लेख लिखा करे । हुआ भी यही, अन्तिम समीक्षाएं ठोस प्रमाणो पर आधारित हो सकी। तत्कालीन वर्षों में या तो उन्होंने अनुवादात्मक कार्य को प्रश्रय दिया रूढिग्रस्त (एकान्तवाद ग्रस्त) पण्डितो के मन्तव्य उनकी या विचारात्मक लेखो में प्रवधानयुक्त होकर समन्तभद्र, युक्तियो से धराशायी हो जाते थे। प्रत्युत्तर के अभाव मे रामसेन, अमितगति आदि के सम्बन्ध में लेख लिखे । मेरा वे अपने को विक्षिप्त सा अनुभव करने लगते थे। सौभाग्य था कि मैं पण्डित जी और प्रेमी जी उभय का जैन विद्वानों एवं साहित्यकारो की कृतियो एव वात्सल्य भाजन बना रहा। इस सहज जात वात्सल्य का तिथियों तथा कालानुक्रमता के विषय मे पीटर्सन, भाण्डार- कारण अनुमान या वर्णन से परे है, तपापि उभय का यह कर, व्हलर, नरसिहाचार्य प्रादि अनेक विद्वानों ने अनेक स्नेह मुझ पर अन्त तक बना रहा है। जब कभी भी मैंने महत्त्वपूर्ण अनुसन्धान किये है। पण्डित जी ने इस सभी उन दोनों को लिखा, उनसे तथ्यों की जानकारी तथा सामग्री का एवं सब स्रोतो का अध्ययन किया था। अपनी पुस्तकादि की प्राप्ति मुझे होती रही। अपनी कृतियों में पजिका एवं विवरण पत्रिका में इन सबका सार उनके मैने सदा उनके प्रति कृतज्ञता भी प्रदर्शित की है। उन पास उपस्थित था एव अपने इस कार्य पर उनके हृदय में दोनों की कृपा के ऋण से में कभी भी उऋण न हो एक स्वाभिमानपूर्ण सन्तुष्टि थी। बहुत से विद्वानों की सकूगा । एकाश में उऋणता के प्रयत्न स्वरूप मैंने अपना शिकायत थी कि उस सामग्री का उपयोग करने की उन्हे सम्पादित ग्रन्थ "कार्तिकेयानप्रेक्षा" उन दोनों मूर्धन्य प्राज्ञा नही देते थे। तथापि इसी अध्ययन के कारण उनके विद्वानो को समर्पित किया है। आज अनेक युवक रिसर्च निबन्ध अन्य पण्डितों की अपेक्षा प्रामाणिक एवं ग्राह्य स्कॉलर इस बात पर पाश्चर्य प्रकट करते है कि मैं उनकी होते थे। अति उदारता पूर्वक सहायता करता हूँ, परन्तु यह सब जैन साहित्यकारों, उनकी कृतियो तथा तिथियों के कुछ इसी कारण से है कि मैने ऐसी ही उदार सहायता विषय में उन्होंने अनेक लेख लिखे थे उनमें से अनेक . अपने बड़ों से प्राप्त की है। अप स्थायी महत्त्व के है। इस विषय मे मेरा और उनका पत्र पण्डित जुगलकिशोर जी चाहते रहे कि मैं वीरसेवा व्यवहार होता रहता था और उनकी सग्रह-पंजिकाएं मेरे मन्दिर का ट्रस्टी बन जाऊँ और अन्त मे स्वयं स्थापित उपयोग के लिए सर्वदा उपलब्ध थीं। ट्रस्ट का ट्रस्टी भी बनाना चाहा। परन्तु उचित था या
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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