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________________ १५२ अनेकान्त महाराणा कुभा का राज्यकाल विक्रम संवत १४६० नान्द गांव की एक प्रतिमा पर इसे पढ़ा था । पहिली बात से १५२५ तक रहा । जैन मन्दिरों के निर्माण की दृष्टि तो यह है कि इस लेख को और मुनि जी द्वारा कल्पित से भी यह काल महत्त्वपूर्ण है। राणकपुर और शृगार उसके संदर्भित अर्थ को यदि एक दम सही मान लें तो चौरी जैसे कलापूर्ण जिनालय इसी काल में बने । महा- स० १५४१ का यह लेख कीर्तिस्तभ के निर्माता शाह राणा कुंभा के प्रीति पात्र शाह गुणराज ने अजारी, पिड जीजा की तीसरी या चौथी पीढी में अंकित हुआ। यह वाडा (सिरोही तथा सालेरा (उदयपुर) मे नवीन जिना- लेख स्वयं ही पन्द्रहवी शताब्दी ईस्वी (सन् १४८४) में लय बनवाये तथा कई पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार लिखा गया। इस प्रतिमा लेख के अनुसार भी इस तिथि कराया। बसन्तपुर और भूला मे भी जैन मन्दिर बने। मे से चार पीढियों का समय घटाना पड़ेगा। इसके बावनागदा की 6 फुट ऊंची शातिनाथ प्रतिमा तथा देलवाडा जद भी मूनि जी ने इस स्तंभ को सोलहवी शताब्दी की को अनगिनती प्रतिमायें, पाबू, बसन्तपुर तथा अचलगढ़ कृति माना है" । मुझे लगता है यह भूल या तो मुनि जी की सैकडो प्रतिमाये इसी काल की कृति है । मूर्ति स्थापन की सामग्री की प्रेस कापी करने वाले के प्रमाद का फल के अतिरिक्त जैन मन्दिरो के जीर्णोद्धारका कार्य भी हुअा। है या फिर प्रेस के भूतो की कृपा । जो हो, मगर इस भूल चित्तौड दुर्ग स्थित जैन स्तभ के निकट वाले महावीर के कारण अनेक लोग दिग्भ्रमित हुए इसमें सन्देह नहीं । स्वामी के मन्दिर का जीर्णोद्धार महाराणा कुभा के समय वास्तव में यह लेख अस्पष्ट है और प्रवरा ही पढा में ही वि० सं० १४६५ मे प्रोसवाल महाजन गुणराज ने जा सका है। स्वय मुनि जी ने ही यह बात स्वीकार की कराया था। है। इस लेख का अभिप्रेत भाग इस प्रकार हैइस प्रकार हम देखते है पन्द्रहवी शताब्दी ईस्वी मे xxx मेद पाट देशे चित्रकूट नगरे श्री चन्द्रप्रभ जिस जैन स्थापत्य का निर्माण हया उसके बीच इस कीति जिनेन्द्र चैत्यालय स्थाने निज भुजोपाजितवित्तबलेन श्री स्तंभ का कहीं उल्लेख नहीं मिलता, उल्टे उस काल में कीर्तिस्तभ पारोपक शाह जिजा सुत शाह पुनसिंहस्य...... इस स्तंभ का तथा इसके समीपस्थ जिनालय का जीर्णोद्धार ...... साहदेउ तस्य भार्या पुई तुकार ।xxx" हुआ ऐसा वर्णन प्राप्त होता है। ऐसे प्रशस्त स्तभ को यहाँ शाह जीजा के पुत्र साह पुनसिह के नाम के आगे जीर्णोद्धार की अवस्था तक पहुँचाने मे स्वाभाविक ही एक शब्द या तो मिट गया प्रतीत होता है या प्रमादवश कम से कम दो ढाई सौ साल तो लगे ही होगे। उपरोक्त लिखने से छूट गया लगता है। अधिक सभावना इसी की अनेको मन्दिरो तथा सैकडो मतियों की शैली, परिकर, है कि यह शब्द मिट गया या अस्पष्ट हो गया है और सज्जा प्रादि से इस स्तभ की गली, परिकर सज्जा अादि मुनि जी के पढने में नहीं पाया। इस शब्द का स्थान का मिलान करने पर भी निर्माण काल का यह अन्तर शायद इसीलिए मुनि जी ने इस लेख को उद्धरित करते परिलक्षित होता है। समय तीगो जगह, “श्रमण सस्कृति और कला" मे, खण्डहरो का वैभव" में तथा अनेकान्त वर्ष ८ मे खाली नांद गाँव का प्रतिमा लेख : छोडकर....इस प्रकार के डाट रखकर इस शब्द का अब हम इतिहास के उस इकलौते तथ्य पर विचार सकेत निर्देश किया है । यह शब्द क्या रहा होगा इसका करेगे जिसका उद्घाटन भारतीय पुरातत्त्वके महान शोधक धक यदि अनुमान किया जा सके तो हम लेख का अधिक सी विद्वान मूनि काति सागर ने किया और जिसके एकमात्र निर्दोष अर्थ प्राप्त कर सकते है। अाधार पर उन्होंने चित्तौड के इस स्तंभ के निर्माण काल मेरे विचार से यहाँ पर "ग्राम्नाये" या "वश" जैसा विषयक, पूर्व मान्यता प्राप्त धारणा को बदलने का प्रयास लन का प्रयास कोई शब्द होना चाहिए। इस शब्द के साथ पढने पर किया । यह लेख सवन् १५४१ का है और मुनि जी ने सिद्ध होगा कि कीर्तिस्तभ के संस्थापक शाह जीजा के पुत्र ३८. वही पृष्ठ ५६ ३६. खण्डहरो का वैभव पृष्ठ १२१
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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