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भनेकान्त
मलसघ शारदागच्छ बलात्कारगण कुन्दकुन्दान्वय और नन्दि अंकित है। और महाराणा कभा ने माडू के सुलतान पाम्नाय के विद्वान् नेमिचन्द्र ने लालावर्णी के आग्रह से महमूद खिलजी और गुजरात के सुलतान कुतुबुद्दीन की गुर्जरवेश से पाकर चित्रकूट मे जिनदास शाह के उस संयुक्त सेना पर वि० सं० १५१४ मे विजय ज्ञाप्त की थी। पार्श्वनाथ मन्दिर मे ठहर कर गोम्मटसार की जीवतत्त्व और उक्त स्तम्भ का निर्माण इस विजय से ६ वर्ष पूर्व प्रदीपिका टीका की रचना सस्कृत मे की थी। जो केशव हो चुका था। ऐसी स्थिति में उसे जयस्तभ नही कहा वर्णी (शक सं० १२८१ वि० स० १४१६) द्वारा रचित जा सकता। कर्णाटक वृत्ति का प्राश्रय लेकर खडेलवाल वशी साहु दूसरा जैन कीर्तिस्तंभ ७ मंजिल का है जो ८० फुट सागा और साह सेहस की प्रार्थना से बनाई थी। इस के लगभग ऊँचा और नीचे ३२ फुट व्यास को लिए हुए तरह चित्तौड दिगम्बर संस्कृति का केन्द्र रहा है। है। ऊपर का व्यास १५ फुट है। यह स्तभ अपनी शानी
प्रस्तत चित्तौड मे दो कीर्तिस्तम्भ है । एक जयस्तंभ का अद्वितीय है, प्राचीन है और कलापूर्ण है। इस अपूर्व या विष्णुध्वजस्तभ, यह अपने ढग का एक ही स्तंभ है जो स्तम्भ का निर्माण बघेरवाल वशी शाह जीजा द्वारा वि० अधिक ऊंचा और अधिक चौडा है। उसके भीतर स हो की१३वी शताब्दी मे कराया गया था। श्रद्धेय अोझा ऊपर जाने का मार्ग है, उसमे ११३ सीढी है। इसक ना जी इसे विक्रम की १४वीं शताब्दी के उत्तरार्ध का बना खन है । यह कलापूर्ण और देखने मे सुन्दर प्रतीत होता
हुपा बतलाते है। इस सम्बन्ध में उन्होने कोई प्रमाण है। इसकी प्रतिष्ठा वि० स० १५०५ माघ वदी दशमी
नही दिया । पर वह सम्भवत: १३वी शताब्दी के लगभग को हुई थी। कुछ विद्वान इसे जयस्तभ बतलाते है पर
का बना हुआ होना चाहिए। मुनि कान्तिसागर जी ने उनका यह मानना ठीक नहीं है; जैन मन्दिरी के सामने
नादगांव की एक मूर्ति के लेखानुसार स० १५४१ का मानस्तभ का निर्माण करने की परम्परा प्राचीनकाल से
बना बतलाया है। पर उन्होंने ऐसा लिखते हुए यह विचार चली आ रही है। हिन्दुओं में भी यह परम्परा रही है। नरी
नहीं किया कि जब राणा कुभा का स्तभ स० १५०५ का राणा कुभा ने विष्णु की भक्तिसे प्रेरित होकर इस विष्णु
है, और कुभा ने इस स्तभ को देखकर ही उसका निर्माण ध्वज का निर्माण कराया है । इस स्तभ में प्रवेश करते ही
सुधार रूप में किया था एव अन्य ऐतिहासिक विद्वानो की विष्णु की मूर्ति का दर्शन होता है। इसमे जनार्दन अनत
दृष्टि में भी वह पूर्ववर्ती है। तब उसे १६वी शताब्दी का आदि विष्णु के विभिन्न रूपों और अन्य अवतारो की
कैसे कहा जा सकता है ? दूसरे जिस शिलालेख पर से मूर्तियो का अकन किया गया है। इस कारण इसे कीति
उन्होंने उसे १६वी शताब्दी (१५४१) का बतलाया, उस स्तभ या विष्णुध्वज कहा जा सकता है। जयस्तभ नहीं ।
मूर्तिलेख में जीजा की वश परम्परा के उल्लेख को भी यह हिन्दुओ के पौराणिक देवताओ का अमूल्य कोष है।
ध्यान में रखना था। अतएव उनका उक्त निर्णय ठीक क्योकि उसमे उत्कीर्ण मूर्तियो के नीचे उनका नाम भी
नही है। वह कीर्तिस्तभ आदिनाथ का स्मारक है। इसके ........."गोर्जर देशाच्चित्रकूट जिनदास साह निर्मा- चारो पार्श्व पर आदिनाथ की एक विशाल जैन नग्न पित पाचप्रभु प्रासादाधिष्ठितेनामुनानेमिचन्द्रेणाल्प
मति स्थित है और बाकी भाग पर छोटी-छोटी अनेक मेघसाऽपि भव्यपुण्डरीकोपकृतीहानुरोधेन सकल ज्ञाति
मूर्तियाँ उत्कीर्ण की हुई है। इस कीर्तिस्तंभ के पास ही सिरः शेखरायमाण खण्डेलवाल कुलतिलक साधु वशा
महवीर का मन्दिर है। जिसका स० १४६५ मे गुणराज वतश जिनधर्मोद्धरणधुरीण साह साग साह सहसा
ने जीर्णोद्धार कराया था। जैन कीर्तिस्तभ जिस स्थान पर विहितप्रार्थनाधीनेन विशदत्रविद्यविद्यास्पदविशाल
बना है उसके पास चन्द्रप्रभ का प्राचीन दिगम्बर मन्दिर कीर्तिसहायादिम यथा कर्णाटवृत्ति व्यरचि ।
था । यह उल्लेख उसी सं० १५४१ के मूर्तिलेख से स्पष्ट -गोम्मटसार जीवतत्त्व प्रदी० दृत्ति प्रशस्ति । ७ देखो, राजपूताने का इतिहास प्रथम एडीसन पहली ८ देखो, राजस्थान भारती का कमा विशेषांक जिल्द पृ० ३५२
६ राजस्थानी का महापुराण कुंभा विशेषाक पृ० ४५